पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 22.pdf/५४३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



५१९
टिप्पणियाँ


चाहिए । लेकिन यदि वे समझते हैं कि यह सम्भव नहीं है तो उन्हें उसका पालन मन, वचन और कर्मसे करते रहना चाहिए। और तब वे देखेंगे कि अपने दुःख-मोचनका और खिलाफत के अन्यायके प्रतिकारका इससे अधिक अचूक और शीघ्र फलदायी उपाय दूसरा नहीं है ।

उत्तेजनाकी जरूरत

कुछ मित्रोंका तर्क है कि संघर्ष जारी रखने के लिए लोगोंको थोड़ी-बहुत उत्तेजना आवश्यक है। किसी भी व्यक्ति या राष्ट्रको केवल उत्तेजनाओंपर जीवित नहीं रखा जा सकता। अभी कलतक उत्तेजना ही उत्तेजना थी। और अब उस उफानके बैठ जानेका समय आ पहुँचा है । अगर आक्रामक कार्यवाहियाँ बन्द हो जाने के फलस्वरूप अवसाद उत्पन्न हो जाता है और लोग हमारा साथ छोड़ने लगते हैं तो यह बात हमारे ध्येयमें बाधक नहीं बनती; इतना ही नहीं, बल्कि उससे उसे सहायता ही मिलेगी। तब हमारे सिर किसी चौरीचौरा जैसे काण्डकी जिम्मेदारी नहीं आयेगी । तब हम साबित कदमोंसे आगे बढ़ सकेंगे और पीछे मुड़कर देखनेका खतरा ही नहीं रहेगा । परन्तु यदि आवेशहीनताके बावजूद हम प्रगति करते रहें और लोग हमारा साथ देते रहें तो वह इस बातका पक्का प्रमाण होगा कि लोग अहिंसाके सन्देशको समझ गये हैं, और वे रचनात्मक कार्य करनेकी उतनी ही क्षमता रखते हैं जितनी उन्होंने ध्वंसात्मक कार्य करने में दिखाई है। परिणाम चाहे कुछ भी हो, इस उत्तेजनाका शमन हर हालतमें आवश्यक है ।

कलाबाजियाँ

बारडोली के प्रस्तावोंकी आलोचना करते हुए श्री केलकरने 'मराठा 'में जो लेख लिखा है, मैंने उसे ध्यानसे पढ़ा है । मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मेरे प्रति उन्होंने शिष्टता और शालीनता बरती है। काश, मैं उन्हें और उनकी तरह सोचनेवाले बहुत से लोगोंको यह समझा सकता कि जिसे वे कलाबाजी कहते हैं वह एक अनिवार्य कार्यवाही थी। पिछली बातपर डटे रहना एक वांछनीय गुण जरूर है, परन्तु यदि तथ्योंकी ओरसे आँख मूंद ली जायें तो वही गुण अभिशाप बन जाता है। मैंने फौजोंकी मोर्चेबन्दियोंको घन्टे - घन्टेपर बदलते देखा है। जुलू विद्रोह के दिनोंमें एक बार हम सब सोये पड़े थे । अगले दिनके लिए हमें निश्चित आदेश मिल चुके थे। लेकिन आधी रातको अचानक हमें जगा दिया गया और यह हुक्म मिला कि हम अनाजके बोरोंके पीछे, जो दीवारके रूपमें चिने हुए थे, चले जायें और उनकी आड़ ले लें, क्योंकि खबर यह मिली थी कि जिस पहाड़ीपर हम डेरा डाले पड़े हैं, दुश्मन उसपर दबे पाँव चढ़ता चला आ रहा है। एक घन्टे बाद पता चला कि वह डर झूठा था और हमें अपने तम्बुओं में लौट जानेकी इजाजत मिल गई। ये सभी 'कलाबाजियां' आवश्यक परिवर्तन थे। निदान बदलनेसे उपचार भी बदल जाता है। एक ही चिकित्सक एक दिन रोगको मलेरिया समझता है और कुनेनकी एक बड़ी मात्रा दे देता है; अगले दिन उसे वह मोतीझरा लगता है तो सब दवाएँ बन्द करके वह मरीजकी सावधानी से परिचर्या करने तथा खानेको कुछ भी न देनेका आदेश देता है; बादमें यदि उसे वह