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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हम कोई वास्तविक प्रगति नहीं कर पायेंगे। हमें यह जानना होगा कि वह शराब पीता क्यों है ? हम शराबकी जगह दूसरी कौनसी वस्तु उसे दे सकते हैं ? इसके सिवा हमें भारत के तमाम शराब पीनेवालोंकी गणना करनी होगी ।

समाज-सेवा विभागको लोगोंने बड़ी हेय दृष्टिसे देखा है । यदि असहयोग आन्दोलनका कोई कुत्सित उद्देश्य नहीं है तो इस विभागको एक कामेकी चीज मानना चाहिए। हम तकलीफ और मुसीबतके मौकेपर प्रत्येक शत्रु और मित्र दोनों की समान भावसे सेवा करना चाहते हैं। इसके द्वारा हम राजनैतिक अलगाव और कार्य- भेदके रहते हुए भी परस्पर मीठा सम्बन्ध रख पायेंगे ।

लोग हँसते हैं

समाज-सेवा तथा शराबखोरी छुड़ाने के कार्यको स्वराज्य युद्धका अंग बतानेपर लोग हँसा करते हैं। इस प्रकार उनके हँसने से यह दुखद सत्य प्रमाणित होता है कि स्वराज्यकी आवश्यक बातोंके सम्बन्धमें बहुत ज्यादा अज्ञान फैला हुआ है । मैं दावेके साथ कहता हूँ कि मानवी स्वभाव और मानवी समाजके सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक विभागों के बीच लोहेकी ऐसी अभेद्य दीवारें नहीं हैं कि जिसमें से पानीकी एक बूँद भी इधरसे उधर न जा सके । एककी दूसरेपर क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है । इसके अलावा हिन्दू-मुसलमानोंकी एक बहुत बड़ी संख्या इस युद्धको धार्मिक समझकर इसमें शामिल हुई है । जनता इसमें इसीलिए शरीक हुई है कि वह खिलाफत और गायकी रक्षा करना चाहती है। मुसलमानोंको खिलाफतकी सहायताकी आशासे वंचित कर दीजिए, बस वे कांग्रेस के पास भी नहीं फटकेंगे । हिन्दुओंसे कहिए कि आप कांग्रेस- में रहकर गोरक्षा नहीं कर सकते - एक भी हिन्दू उसमें न टिकेगा । नैतिक सुधारोंपर तथा समाज-सेवापर हँसना मानो स्वराज्य, खिलाफत और पंजाब के मामलों- पर हँसना है ।

और तो और पाठशालाओंके संगठनपर भी लोग हँसे बिना न रहे। आइए, जरा सोचें, इसका मतलब क्या है ? हमने सरकारी विद्यालयोंकी शान तो मिट्टी में मिला दी है। लड़कोंकी पढ़ाईके प्रति उदासीन रहकर धरना देना १९२० में तो कदाचित् आवश्यक था पर अब सरकारी विद्यालयोंपर धरना देना अथवा राष्ट्रीय शिक्षा- संस्थाओंकी उपेक्षा करना अपराध है। अब तो हम उसी अवस्थामें अधिक लड़के- लड़कियोंको अपनी ओर खींच सकते हैं जब हमारे वर्तमान राष्ट्रीय विद्यालय बेहतर पायेपर हों । राष्ट्रीय स्कूलोंमें आ जानेपर विद्यार्थीगण एक ऐसी संस्थामें शामिल होने का लाभ उठा सकते हैं जहाँ वे स्वतन्त्रताके वायुमण्डलमें साँस ले सकते हैं और जहाँ उन्हें सन्देहकी दृष्टिसे नहीं देखा जाता । परन्तु इसके साथ वहाँ धुनने, सूत कातने और बुननेके वैज्ञानिक प्रशिक्षण तथा देशकी आवश्यकताओंके अनुकूल बौद्धिक शिक्षाकी भी व्यवस्था होनी चाहिए। हम अपने प्रयोगमें सफलता प्राप्त करके यह दिखा सकेंगे कि राष्ट्रीय विद्यालयोंमें अधिक अच्छी शिक्षा दी जाती है ।

और पंचायतोंको भी लोगोंने नहीं छोड़ा। आलोचकगण शायद इस बातको जानते ही नहीं थे कि भारत के कितने ही भागों में सर्वसाधारणने सरकारी अदालतोंमें