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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

लेना चाहिए और परिषदोंके लिए उम्मीदवार बन जाना चाहिए, अथवा वकीलोंको फिरसे अदालतोंमें और विद्यार्थियोंको सरकारी कालेज-स्कूलों में जाने लगना चाहिए। इस बात के बारेमें कोई जरा भी सन्देह न करे कि 'अहिंसा'के द्वारा जिस स्वराज्यकी स्थापना होगी वह उस स्वराज्यसे अवश्य ही भिन्न होगा जो सशस्त्र बलवेके द्वारा स्थापित किया जायेगा । स्वराज्य हो जानेपर भी पुलिस और दण्ड तो रहेंगे ही। पर उस समय न तो सरकार ही और न लोग ही ऐसे पाशविक अत्याचार कर पायेंगे जैसे कि हम आज अपनी आँखोंसे देख रहे हैं । जो लोग, फिर वे चाहे हिन्दू कहलाते हों चाहे मुसलमान, अहिंसाको व्यवहार-नियमके तौरपर पूरी तरह नहीं मानते हैं उन्हें असहयोग और अहिंसा दोनोंको छोड़ देना चाहिए ।

जहाँतक मेरा सवाल है, मुझे भरोसा है कि न तो 'कुरान' में और न 'महाभारत' में ही कहीं हिंसा करनेकी अनुमति दी गई है या उसकी विजयको विजय माना गया है । यद्यपि कुदरतमें हमको काफी आकर्षण दिखाई देता है तथापि वह आकर्षणके ही सहारे टिकी हुई है। कुदरतका काम पारस्परिक प्रेमकी ही बदौलत चलता है । मनुष्य संहारके द्वारा अपना निर्वाह नहीं करते । आत्मप्रेम औरोंके प्रति प्रेमभाव के लिए विवश करता है । राष्ट्रों में एकता इसलिए होती है कि राष्ट्रोंके अंगभूत निवासीगण परस्पर आदर-भाव रखते हैं। किसी-न-किसी दिन हमें अपना राष्ट्रीय न्याय सारे विश्वतक व्याप्त करना पड़ेगा, जैसा कि हमने अपने कौटुम्बिक न्यायको राष्ट्रके- एक बड़े कुटुम्बके निर्माण में व्याप्त किया है । ईश्वरका यह आदेश है कि भारतको ऐसा ही होना चाहिए; क्योंकि जहाँतक युक्ति और तर्ककी पहुँच हो सकती है, भारत सशस्त्र बगावत के द्वारा पुश्तोंतक आजाद नहीं हो सकता। भारत तो सिर्फ राष्ट्रीय हिंसासे दूर रहकर ही आजाद हो सकता है। भारत अब ऐसे शासनसे थक गया है जो हिंसा-काण्डपर आधारित है। मेरे नजदीक तो भारतके मैदानी इलाकों में रहनेवालों का यही सन्देश है । वे यह नहीं जानते कि संगठित रूपसे सशस्त्र युद्ध कैसा होता है और उन्हें आजाद तो होना ही है; क्योंकि वे आजादी चाहते हैं । उन्हें यह अच्छी तरह मालूम हो गया है कि हिंसा - काण्डके द्वारा प्राप्त सत्ताका फल यही होगा कि हम और अधिक पीसे जायेंगे ।

कुछ भी हो अहिंसा के धर्मकी नहीं, व्यवहार-नियमकी उत्पत्ति तो इसी विचार-धारासे हुई है । और जिस प्रकार कोई मुसलमान या हिन्दू हिंसा में विश्वास रखता हुआ भी अपने परिवार के लिए अहिंसा-धर्मका ही व्यवहार करता है उसी प्रकार उन दोनोंसे यह कहा जा रहा है कि अहिंसा के इस व्यवहार-नियमको आप लोग अपने पारस्परिक व्यवहारमें तथा भिन्न-भिन्न जातियों (जिनमें अंग्रेज भाई भी शामिल हों) और श्रेणियोंके प्रति व्यवहारमें अपनाइए । जो लोग इस व्यवहार-नियमके कायल न हों और जो उसके अनुसार पूरी तौरसे आचरण न करना चाहते हों उनका इस आन्दोलनके अन्दर रहना इसकी गतिको कुण्ठित करना है ।

प्रान्तीय कमेटियोंको सलाह

इससे यह स्पष्ट है कि मैं प्रान्तीय संगठनोंसे क्या चाहता हूँ । फिलहाल उन्हें जहाँतक मुमकिन हो सरकार के कानूनों को भंग नहीं करना चाहिए। जबतक वे अपने