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टिप्पणियां

तबतक हमें उसके अनुसार सच्चे दिलसे चलते रहना चाहिए। एक निश्चित मार्ग से जाना तो साधारण व्यवहार-नियम हुआ । पर जिस सिपाहीके कदम लड़खड़ाते हैं वह तो तुरन्त ही निकाल दिये जानेके योग्य है । इसलिए जब लोग मुझसे अहिंसाके सम्बन्ध- में संदिग्ध चित्तसे बातचीत करते हैं या अहिंसा शब्दका उच्चारण करते ही घबराने लगते हैं, तब में दुविधामें पड़ जाता हूँ । यदि उनका यह विश्वास है कि अहिंसासे हमारा काम नहीं निकल सकता तो उन्हें उसका त्याग कर देना चाहिए; यह नहीं कि हृदयमें उसके प्रति विरोध-भाव होते हुए वे उसकी उपयोगिताके कायल होनेका दावा करें। मान लीजिए, मैं हिंसामें-शस्त्र - प्रयोगमें - यहाँतक कि उसके समयानुकूल होने में भी विश्वास न रखते हुए, एक हिंसक दलमें शामिल होकर तोपके सामने खड़ा हो जाता हूँ, मगर मेरे दिलमें धुकधुकी लगी हुई है, तो यह कितनी घातक बात होगी ? यदि मैं कहूँ कि मुझमें एक मक्खीको मारनेकी शक्ति है तो पाठक इस बातको मान लेंगे लेकिन मैं तो मक्खी तकके मारनेका कायल नहीं हूँ। अब फर्ज कीजिए, मैं मक्खी-मार दलमें उसको समयोपयोगी समझकर शामिल हो गया, तो क्या धावेमें शामिल होनेकी अनुमति मिलने के पहले मुझसे यह आशा न की जायेगी कि जबतक में उस मक्खी मारनेवाली सेनामें शामिल हूँ तबतक विनाशकी तमाम उपलब्ध शस्त्र - सामग्रीका उपयोग करूँगा ? यदि वे लोग जो कांग्रेस और खिलाफत समितियोंमें हैं, इस साधारण सत्य - सिद्धान्तको समझ जायें तो हम निश्चयपूर्वक या तो इसी वर्षके अन्दर संघर्ष में विजय प्राप्त कर लेंगे या अहिंसासे हमारा जी इतना ऊब उठेगा कि हम उसका परित्याग कर देंगे और किसी दूसरे कार्यक्रमकी योजना बनायेंगे ।

मेरा खयाल है कि स्वामी श्रद्धानन्दजीकी, उनके उस प्रस्ताव के लिए जो वे उपस्थित करना चाहते थे, व्यर्थ ही टीका-टिप्पणी की गई है। उनकी दलील बिल- कुल उचित थी । उनकी धारणा है कि हम वास्तवमें व्यवहार-नियमके तौरपर भी सामूहिक रूपसे अहिंसाको नहीं मानते । अतएव हम अहिंसाके कार्यक्रमको हरगिज पूरा नहीं उतार सकते । इसलिए उनका कहना था कि चलो परिषदोंमें ही चलें और वहाँसे जो भी टुकड़े मिल जायें वहीं ले लें । वे उन लोगोंकी स्थितिकी अयथार्थता बताना चाहते थे जो अहिंसाको केवल जबानसे मानते हैं, पर वास्तवमें जो अन्तिम छुटकारे के लिए हिंसा -काण्डकी आशा लगाये बैठे हैं। मैं जोर देकर कहता हूँ कि यदि कांग्रेसवादी इस व्यवहार-नियमको पूरी तरह नहीं मानते तो अपनेको उसका अनुयायी बताकर वे देशको हानि पहुँचा रहे हैं । यदि भावी सरकारकी नींव हिंसापर रखी जानेवाली हो तो विधान सभाओंके पक्षपाती निस्सन्देह सर्वाधिक बुद्धिमान हैं; क्योंकि इन परिषदोंकी मार्फत उन्हीं साधनों और तजवीजोंसे जिनके द्वारा हमारे वर्तमान शासक हमपर राज्य कर रहे हैं, विधायकगण उनसे अधिकार छीन लेनेकी आशा करते हैं। मुझे इस बातमें कोई शक नहीं कि जो लोग अपने दिलोंमें हिसाके भावों- का पोषण करते रहते हैं, वे देखेंगे कि अहिंसाके सम्बन्धमें कोरी बातें बनानेसे कोई लाभ नहीं हो सकता। इसलिए मैं अपनी पूरी शक्तिके साथ आग्रह करता हूँ कि जो लोग अहिंसा के कायल नहीं हैं उन्हें कांग्रेस और असहयोग दोनोंसे अपना नाता तोड़

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