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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मालूम होने लगा तब मैंने पुनरुक्ति दोष और प्रगल्भताको स्वीकार कर लेना, जो कि इस प्रस्तावमें निश्चित रूपसे मौजूद हैं, अस्पष्टता और दुरूहतासे अच्छा माना ।

सर विलियम विन्सेंटने बारडोली प्रस्तावोंकी जो व्याख्या की है उसे मैं सामान्यतः स्वीकार करता हूँ। वे यह सर्वथा ठीक कहते हैं कि बारडोली प्रस्तावका यह अर्थ कदापि नहीं होता कि कांग्रेसकी नीति उलट दी गई है या असहयोग सम्बन्धी कांग्रेस- कार्यक्रममें कोई संशोधन हुआ है। और इसका अर्थ केवल इतना ही है कि सामूहिक सविनय अवज्ञा स्थगित कर दी गई है और अन्य आक्रामक ढंगके आन्दोलन भी, जबतक उनके फिर जारी करनेकी सलाह न दी जाये, स्थगित रहेंगे । और हो भी क्या सकता था । बारडोली के प्रस्ताव तो जनता के सामने रखे गये थे और ये प्रस्ताव एक प्रकारसे प्रायश्चित्तके रूपमें थे और इन प्रस्तावों द्वारा असहयोगसे सहानुभूति रखनेवाली जनताको निश्चित रूपसे यह भी बताना था कि जो लोग हिंसा में विश्वास रखते हैं उनकी सहानुभूतिकी आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं, हिंसा हमारे आन्दोलनके लिए हानिकारक मानी गई है।

मैं आलोचकोंको, जिनमें से कई मेरे घनिष्ठ मित्र भी हैं, चेताना चाहता हूँ कि वे कुछ दिनोंसे भावुकतामें बहने लगे हैं। मैं ऐसे आलोचकोंको बताना चाहता हूँ कि व्याख्यात्मक प्रस्तावसे वारडोली प्रस्तावोंमें कोई खास परिवर्तन हुआ न समझा जाये । केवल दो बातों में परिवर्तन हुआ है । एक तो यह है कि प्रान्तीय कांग्रेस कमेटियों की सीधी देखभाल में जाने-बूझे, नेक चाल-चलनवाले तथा अधिकार प्राप्त लोगोंको ही विदेशी दुकानोंपर धरना देनेकी पुनः अनुमति मिलनी चाहिए। इस बातपर क्षोभसे भरी हुई शिकायतें आई हैं कि विदेशी कपड़े के व्यापारी विदेशी कपड़े के प्रति जनताकी नापसन्दगी की कोई परवाह नहीं करते । शिकायत करनेवालों में विलायती कपड़े पहननेवाले लोग भी हैं । ये व्यापारी गम्भीरतापूर्वक विदेशी कपड़ा न मँगानेकी प्रतिज्ञा लेनेके बाद भी उसे तोड़ देते हैं । जनताने इन व्यापारियोंकी स्वार्थसे भरी हुई और देशद्रोहपूर्ण मनो- वृत्तिके प्रति ठीक ही रोष प्रकट किया है क्योंकि उन्होंने रुपया कमानेके लिए जनताकी इस भावनाकी कतई परवाह नहीं की कि देशमें विदेशी कपड़ा अब और न मँगाया जाये। यह समझना एक भारी भूल मानी जायेगी कि विदेशी कपड़ेका विरोध किसी द्वेष या दुर्भावके कारण किया जाता है । विदेशी कपड़ों के प्रति अरुचि होना राष्ट्रीय चेतनाका द्योतक है। वह एक उच्च कोटिकी आर्थिक वस्तुस्थितिका परिचायक है । हमारे इस कथन की सत्यता इस बातसे और भी समर्थित होती है कि भारतकी मिलोंमें बने कपड़ों के प्रति विरोधी भावना जोर पकड़ रही है । भारतकी मिलोंमें काम करनेवालों के विरुद्ध दुर्भावका प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन जबतक राष्ट्रकी समझमें यह बात नहीं आ जाती कि मिलका कपड़ा खरीदना जनताके लिए उतना ही दुश्वार है जितना उसका होटलोंसे भोजन खरीदना, और मेरा खयाल है किसी दिन राष्ट्र इसे समझ जायेगा, तबतक विदेशी कपड़ोंकी दुकानोंपर धरना देनेके बारेमें जो सार्वजनिक माँग की जा रही है, उसके विरोध में खड़ा होना असम्भव है । मैं यही आशा कर सकता हूँ कि भारतके व्यापारी जो अबतक ऐसे व्यापार में लगे हुए थे जिससे जनताकी गरीबी