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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सत्याग्रहके युद्धमें पराजय होती ही नहीं; लेकिन सामान्य युद्धमें तो पराजय भी होती है, तब भी सेना धीरज नहीं छोड़ती । हमारे विरुद्ध यह आरोप लगाया गया है कि भारतवासी पराजयको झेल ही नहीं सकते। एक बार पराजित होनेपर ही वे भागने लगते हैं। मैं तो यह उम्मीद किये बैठा हूँ कि हिन्दुस्तान इस आरोपको मिथ्या सिद्ध कर दिखायेगा । बारडोली जैसे प्रस्तावोंको तो मैं हमारी हारकी निशानी भी नहीं मानता। मैं तो यही मानता हूँ कि यह हमारी सचाई और हमारे साहसकी निशानी है ।

इसके सिवा, अहमदाबाद और सूरतकी लड़ाई तो स्थानीय लड़ाई है । उसपर बारडोलीके प्रस्तावका कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए; और नगरपालिका बन्द हो गई, इसके लिए किसीको निराशा क्यों होनी चाहिए ? हमारी कोशिश ही इस परिणामको प्राप्त करनेकी थी। हमारी लड़ाईका रहस्य ही यह है कि हर कदमपर सरकार ऐसी स्थिति स्वीकार करती जाये, जिसका बचाव करना उसके लिए कठिन होगा । यह लड़ाई सरकारकी निरंकुशताको प्रगट करनेकी लड़ाई है । सरकारने समितियाँ नियुक्त कीं, इसका परिणाम यह हुआ है कि सूरत तथा अहमदाबादकी नगरपालिकाएँ पूरी तरह असहयोगी हो गई हैं । अब उनके वेगको रोकने के लिए सिर्फ नागरिक ही रह गये हैं । यह बात सच है कि कुछ- एक मकानोंपर से हमारा कब्जा चला गया, लेकिन उससे क्या ? नागरिक प्रतिनिधि आमके पेड़के नीचे अपनी बैठकें कर सकते हैं। अपना कामकाज चलाने के लिए उन्हें पत्थरके मकानोंकी जरूरत नहीं है । नई समितियाँ बलात् लोगोंके पाखाने साफ नहीं कर सकतीं और न ही सड़कोंपर रोशनी कर सकती हैं । नागरिक जितना करने देंगे उतना ही नई समितियाँ कर सकेंगी — यह बात नागरिक एक हफ्ते में ही सिद्ध कर सकते हैं। इसलिए मैं तो किसी भी तरहसे निराश होने का कोई कारण नहीं देखता । निराशा तो हमारी नासमझीकी ही निशानी हो सकती है ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, २६-२-१९२२