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अहमदाबाद और सूरतकी कसौटी

नागरिकोंकी रस भी आता था लेकिन वे स्वयं कुछ करनेका अथवा सोचनेका कष्ट नहीं उठाते थे ।

इसलिए दोनों शहरोंके नागरिकोंका सबसे पहला कर्तव्य यह है कि वे अपने बच्चोंकी शिक्षापर अपना पूरा-पूरा अधिकार रखें, इतना ही नहीं, अपनी शिक्षाको सुदृढ़ आधारपर ऐसा सुन्दर रूप दें कि किसीके मनमें सरकारी स्कूलमें जानेका लालच ही न उठे ।

इस कामको करते हुए हमें मालूम होगा कि हमारे व्यवहारमें जितना अंश बनावटी है वह ज्यादा नहीं टिकेगा। नागरिक सच्चे असहयोगी होंगे तो ही वे अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलोंमें नहीं भेजेंगे । इसी तरह यदि उन्हें अपने बच्चोंकी शिक्षाकी सच्ची चिन्ता होगी तो वे शिक्षाके आधारको सुदृढ़ बनायेंगे । अहमदाबाद तथा सूरत के शिक्षित लोग शिक्षा प्रदान करने में मदद करेंगे, नागरिक शिक्षा प्रदान करनेके लिए जगह देंगे, अनेक प्रकारकी आवश्यक सुविधाएँ जुटायेंगे और सरकारी समितिको बता देंगे कि अपने बच्चोंकी शिक्षाके लिए वे अनेक बलिदान करनेके लिए तैयार हैं।

इस शिक्षापर होनेवाले खर्चके लिए पैसा जुटानेका सवाल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । मेरा तो स्पष्ट मत है कि नागरिक शिक्षा विभाग के अन्तर्गत जो कर देते हैं उसे न देनेका उन्हें पूरा-पूरा अधिकार है। लेकिन वैसा हो या न हो, अहमदाबाद और सूरतके निवासियोंको उतना पैसा इकट्ठा करना मुश्किल नहीं होना चाहिए। आवश्यक पैसे इकट्ठे करके वे अपनी एकता और दृढ़ता प्रगट कर सकेंगे । शिक्षाके निमित्त दिया गया पैसा कोई दान नहीं है। यह तो पूँजी लगाने का सबसे अच्छा क्षेत्र है। इससे माँ-बापको पूरा-पूरा लाभ मिलेगा। मुझे उम्मीद है कि इन दोनों शहरोंके नागरिक तुरन्त ही यह सब व्यवस्था कर लेंगे। यदि अहमदाबाद और सूरत इस कार्य- को अच्छी तरहसे पूरा करेंगे तो इसमें कोई शक नहीं कि वे समस्त भारतवर्षके सम्मुख एक सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। और ऐसे उदाहरणोंका, हम जिस स्वराज्य के लिए लड़ रहे हैं उसपर भी गहरा असर पड़े बिना न रहेगा ।

यदि ये शहर इतना कार्य, द्वेष अथवा रोषको किंचित् भी बढ़ाये बिना, तनिक भी शान्ति भंग किये बिना, कर सकें तो हम संसारको बता सकेंगे कि हम शान्तिमय असहयोगको कितने सुन्दर ढंगसे चला सकते हैं ।

मैं चाहता हूँ कि अन्य मामलों में भी नागरिक स्वतन्त्र होकर दिखा दें। लेकिन नेताओंसे मैं यह विशेष आग्रहके साथ कहना चाहता हूँ कि वे प्रत्येक कदम अच्छी तरहसे सोच-विचारकर और धीमे-धीमे उठायें ।

मैंने लोगोंको अकसर यह कहते सुना है कि बारडोली में सविनय अवज्ञाके मुल्तवी हो जाने तथा नगरपालिकाओंपर उनका जो अधिकार था उसके छिन जानेसे नागरिक निरुत्साहित हो गये हैं । यदि ऐसा है तो नागरिक न तो असहयोगको समझ पाये हैं। और न हमारी लड़ाईकी खूबीको ही । बारडोलीमें जो प्रस्ताव पास किया गया है वैसे प्रस्ताव तो असहयोगकी लड़ाईमें पास होते ही रहते हैं । यह तो एक महान् लड़ाई है और ऐसी लड़ाई में अनेक व्यूह रचे और तोड़े जाते हैं। सबका हेतु एक ही होता है । व्यूह रचनेकी जितनी आवश्यकता होती है उतनी ही उसे तोड़नेकी भी होती है।