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अहमदाबाद और सूरतकी कसौटी
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अहमदाबाद और सूरतके निवासियों तथा उनके सच्चे 'नगरपालकों' की अब कसौटी होनेवाली है।[१] हममें सार्वजनिक जीवनका कितना विकास हुआ है, नागरिक एक-दूसरेको किस हदतक कुटुम्बी मानते हैं, उनमें दृढ़ता, प्रतिज्ञा-पालन, स्वार्थत्याग तथा अध्यवसाय कितना है, इन सब बातोंकी परीक्षा अब होकर रहेगी ।

यदि नागरिकों के प्रतिनिधि उपर्युक्त समस्त गुणोंका परिचय देंगे तो उसका एक ही परिणाम होगा - सरकार द्वारा नियुक्त की गई समितिको बिना किसी काम- धन्धेके निकम्मे बैठे रहना पड़ेगा ।

नये सुधारोंमें कितना खोखलापन है, यह बात इन दो बड़ी नगरपालिकाओंको बन्द कर देने से जितनी अधिक प्रमाणित होती है उतनी किसी अन्य बातसे नहीं हो सकती । यदि नागरिकोंके प्रतिनिधि स्वेच्छाचारी होते तो उनकी सत्ता छीन लेना शायद उचित होता लेकिन यहाँ तो सरकार जानती है और स्थानीय स्वराज्य विभागके भारतीय “मन्त्री" भी जानते हैं कि नागरिक और उनके प्रतिनिधि दोनों इस झगड़े में एकमत हैं, दोनों शिक्षा विभागको स्वतन्त्र रखना चाहते हैं । ऐसा होनेके बावजूद नगरपालिका के विरुद्ध विधिपूर्वक कुछ कार्रवाई करनेके बदले सरकारने नगरपालिकाको बन्द कर दिया है। मतलब यह हुआ कि सरकार और " हमारे” मन्त्री लोकमत के विरुद्ध हो गये हैं। इसलिए नये सुधारोंमें निरंकुशताके अलावा और कुछ नहीं है और इससे यह भी प्रमाणित होता है कि इन सुधारोंसे प्रजाको कदापि कोई लाभ नहीं हो सकता ।

लेकिन इस स्थानपर तो हमारे लिए सुधारोंके लाभालाभका विचार करनेकी अपेक्षा इस बातपर विचार करना ही अधिक उचित होगा कि नागरिकोंको अपनी प्रतिज्ञाका पालन करना चाहिए। ऐसी सामान्य बातोंके विषय में अगर नागरिक हार जायें तो मैं तो कहूँगा ही, दुनिया भी कहेगी कि वे स्थानीय स्वराज्य भोगने के योग्य नहीं है। स्वराज्यकी योग्यता जैसे उसे प्राप्त करने [ की क्षमता ] से सिद्ध होती है उसी तरह उसकी रक्षा करनेकी शक्ति से भी सिद्ध होती है। बाहरसे होनेवाले आक्र- मणोंके बावजूद यदि हम अपने अस्तित्वको बनाये रख सकें तभी हम शक्तिमान् कहलाते हैं। बाहरके कीटाणुओंके चढ़ाई करनेपर भी जो व्यक्ति नीरोग रह सकता है, उसीका शरीर स्वस्थ माना जाता है । इस लड़ाईका केन्द्रबिन्दु शिक्षा है । अन्य बातोंके सम्बन्धमें नागरिक अपने अधिकारोंकी रक्षा करें अथवा न करें लेकिन शिक्षाके विषयमें यदि पराजित होते हैं तो वे बिलकुल पराजित हुए माने जायेंगे और तब अवश्यमेव यही सिद्ध होगा कि नागरिक-गण स्वतन्त्र रूपसे विचार या कार्य करने के योग्य नहीं हुए हैं । यदि वे अपनी टेक छोड़ते हैं तो उससे यह सिद्ध होगा कि प्रतिनिधियों में एक तरहकी चतुराई थी इसलिए वे सरकारसे जूझ तो जाते थे और इस लड़ाई में

१.

  1. देखिए “ टिप्पणियाँ ", १९-२-१९२२ का उप-शीर्षक " अहमदाबाद और सूरत निवासियोंसे " ।