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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करनी पड़ रही है। परन्तु उनकी विद्वत्ता, उनकी मानवता और उनके दर्शन के प्रति मेरी श्रद्धा अब भी अक्षुण्ण है । परन्तु इस बातपर मैं अपना गहरा खेद प्रकट किये बिना नहीं रह सकता कि उन्होंने आत्मीयताके वातावरणमें हुई हमारी व्यक्तिगत बातचीत लोगोंके सामने प्रकट कर दी और वह भी बहुत कटे-छटे रूपमें। उन्होंने उस मुलाकातका विवरण कुछ इस तरह पेश किया है कि मेरी स्थिति हास्यास्पद हो जाती है । उसके सार तत्त्वसे इनकार करना सम्भव नहीं है, किन्तु उसे उसके सन्दर्भसे अलग-अलग और एम० पॉल रिचर्डकी भाषामें प्रस्तुत करनेसे मेरी स्थिति हास्यास्पद ही प्रतीत होती है । मैं और महाराष्ट्रका दल दोनों एक-दूसरेको समझनेका प्रयास कर रहे हैं । हम प्रतिदिन एक-दूसरेके समीप आते जा रहे हैं । भारतके एक महानतम नेता और उस व्यक्तिके जीवन और चरित्र के बारेमें, जिसका उस दलके सदस्योंके हृदय- पर ऐसा गहरा प्रभाव है जैसा किसी भी समुदायपर किसी अन्य व्यक्तिका नहीं है, यदि मैं कोई अनुचित बात कहता हूँ तो उस दलका अप्रसन्न होना ठीक ही होगा । मैं और एम० पॉल रिचर्ड एक गम्भीर धार्मिक वार्त्तालाप में निमग्न थे । मैं उनके समक्ष अपनी मान्यताके आधारभूत तथ्य प्रस्तुत करनेका प्रयास कर रहा था । हम दोनोंको अपने बीच जो गम्भीर मतभेद दिखाई दिये थे, उनके बारेमें मैं बात कर रहा था, और जब मैं अपनी बात समझा रहा था तो मैंने अपने और लोकमान्य के बीच मतभेदका अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उल्लेख किया। लोकमान्य के साथ कई बार स्पष्टता- पूर्वक हुई बातचीत के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा था कि कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों- पर हम कभी एकमत नहीं हो सकते । संस्कृत साहित्य के ज्ञानके अपने अक्षय भण्डारसे दृष्टान्त देते हुए वे जीवन-सम्बन्धी मेरी व्याख्याको चुनौती देते तथा बहुत स्पष्टता और कठोरताके साथ कहते थे कि सत्य और असत्य केवल सापेक्ष शब्द हैं, परन्तु मूल रूपमें सत्य और असत्य-जैसी कोई चीज नहीं है, वैसे ही जैसे जीवन और मृत्यु-जैसी कोई चीज नहीं है । मैं इस सूक्ष्म विवेचनका खण्डन तो नहीं कर सकता था, परन्तु उसे वास्तविक जीवनपर लागू करनेमें मुझे एक त्रुटि नजर आई और जिसे मैंने अत्यन्त विनम्रताके साथ उनके सामने प्रस्तुत किया । मेरा खयाल है कि हमने कभी भी एक-दूसरेको गलत नहीं समझा । सिंहगढ़में, जहाँ हम दोनों कुछ विश्रामके लिए गये थे, हम एक-दूसरेके अधिक समीप आये।[१] मैंने पाया कि अपने विचारोंके प्रतिपादनमें वे निडर और खरे थे और उनका अनुसरण करनेका प्रयास करते थे । मुझे यह भी ज्ञात हुआ कि अपने करोड़ों देशवासियोंपर उनका ऐसा अद्भुत प्रभाव क्यों था । मैंने अपने लिए कभी श्रेष्ठताका दावा नहीं किया है। मैं सिर्फ यह जानता हूँ कि हमारा मतभेद बुनियादी था, परन्तु अधिक सम्पर्कके कारण उनके प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ती गई, और मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे समय बीतता गया, मेरे प्रति उनका स्नेह भी बढ़ता गया । इसलिए मैं पाठकोंको विश्वास दिलाता हूँ कि एम० पॉल० रिचर्डके सामने मैंने जो मत व्यक्त किया, उसमें उस दिवंगत महान् नेताके व्यक्तित्व और चरित्रकी अव-

 
  1. तिलकने १ मई, १९२० को सिंहगढ़में गांधीजीके साथ चर्चा की थी; देखिए खण्ड १७, पृष्ठ ४०९-११ ।