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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  पर वे लोग ऐसा करें या न करें, देशकी आजादीकी प्रगतिको किसी एक संस्था- का अथवा किन्हीं थोड़े-से आदमियोंके कुछ समूहोंका मोहताज नहीं बनाया जा सकता । इस देशमें आज जो कुछ हो रहा है, वह वही है जो यहाँकी समग्र जनता चाहती है । जनता मुक्तिकी ओर तेजीसे बढ़ रही है और इन पूंजीपतियोंकी मदद मिले या न मिले, उसकी गति तो रुक ही नहीं सकती । अतएव इस आन्दोलनको पूँजीपतियों- पर निर्भर रहे बिना चलना चाहिए; फिर भी उनका विरोध नहीं करना चाहिए। पर यदि पूँजीपति लोग जनताकी सहायता के लिए आगे बढ़ें, तो इससे उनकी कीर्ति बढ़ेगी और भावी सुखके दिन भी जल्दी ही नजदीक आ जायेंगे ।

पहले भी यहाँ यही हालत थी । भारत के इतिहास में पूँजीपति और श्रमजीवियोंके सम्बन्ध बुरे नहीं रहे हैं । चार वर्णोंकी व्यवस्था केवल धार्मिक दृष्टिसे ही नहीं, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिसे भी की गई है; और मुसलमान संस्कृति के मिश्रणसे उसपर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा है, क्योंकि मुसलमान संस्कृति सार रूपमें धार्मिक संस्कृति है, अतएव गरीबों के लिए कल्याणकर है । इस्लाम साफ शब्दों में सूदखोरीको मना करता है, इसलिए मानना चाहिए कि वह पूँजी जमा करनेके भी खिलाफ है ।

और इस समय भी यह तो नहीं कहा जा सकता कि पूँजीपति लोग इस आन्दो- लनसे दूर-दूर ही हैं। तिलक स्वराज्य कोषके लिए जिस वर्गने इतनी उदारतासे दान दिया वह मध्यम श्रेणीके पूँजीपतियोंका ही वर्ग था। लेकिन यह बात भी दुःखके साथ कबूल करनी पड़ती है कि दुर्भाग्यवश अधिकांश मिल-मालिक इससे अलग ही रहे हैं। इस देशमें अगर सबसे बड़ा कोई उद्योग है तो वह वस्त्र उद्योग ही है । अब समय आ गया है कि वह अपना मार्ग निश्चित कर ले। वह इस आन्दोलन के साथ चलेगा या इससे दूर रहेगा ?

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २३-२-१९२२

१८९. मेरे दुःखका अन्त नहीं

'लोकमान्य 'के व्यवस्थापकने अपने पत्रके प्रतिनिधि और एम० पॉल रिचर्डके बीच हुई मुलाकातका निम्नलिखित विवरण मेरे पास भेजा है। उन्होंने मुझसे इसे प्रकाशित करने और इसपर अपनी सम्मति देनेके लिए कहा है । मैं बहुत संकोच- विकोच और अनिच्छापूर्वक अपनी सम्मति दे रहा हूँ, क्योंकि सार्वजनिक कार्यकर्त्ताके सामने प्रायः कोई विकल्प नहीं रह जाता। उसे अनिच्छा और संकोचपर काबू पाना पड़ता है। एक बार मेरे शान्तिनिकेतन सम्बन्धी विचारोंको बहुत ही गलत रूपमें पेश किया गया था, हालाँकि उसके पीछे कोई दुराशय नहीं था । उसे सुधारते हुए मुझे बड़ा दुःख हुआ था।[१] कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें कोई बहुत पवित्र मानता है।

  1. देखिए " टिप्पणियाँ", ९-२-१९२२ का उप-शीर्षक " प्रकाशनकी दृष्टिसे अवांछनीय"