पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 22.pdf/४९५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



४७१
टिप्पणियाँ
(७) मान लीजिए कि आपके सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर देने- पर कहीं हिंसाकाण्ड हो गया, तो उस समय आप क्या करेंगे ? क्या आप उसी दम अपनी गतिविधियाँ बन्द कर देंगे ?

इस पत्र में इससे भी अधिक आलोचना की गई है । पत्र लेखक कहते हैं कि लोग इतने तंग आ गये हैं कि वे सरकारके साथ सहयोग करनेकी धमकी देते हैं और उन सबका खयाल है कि मैंने लाला लाजपतराय, देशबन्धु चित्तरंजन दास, पण्डित मोतीलाल नेहरू और अली-बन्धुओं आदिको बेच डाला है । पत्र लेखकका कहना है कि यदि मैं नेतृत्व छोड़ दूंगा तो हजारों आदमी आत्महत्या कर डालेंगे। अब मैं खास तौरपर लाहौरके और आम तौरपर पंजाबके सभी लोगोंको यह यकीन दिलाता हूँ कि मैं उसपर भरोसा नहीं करता जो उनके विषयमें कहा गया है। मार्शल लॉके जमाने में भी, सविनय अवज्ञा आन्दोलन बन्द कर देने के कारण, मेरे पास ऐसे ही पत्र आया करते थे, पर मैं उन तमाम खबरोंको अधिकतर गलत ही मानता रहा और जब अक्तूबरमें [१] मैं पंजाब पहुँचा, तो मैंने देखा कि पंजाबके लोगोंकी मनःस्थितिका जो अनुमान मैंने किया था, वह ज्यादा सही था और मुझे मालूम हुआ कि मेरे कार्यके औचित्यपर किसीने अँगुली नहीं उठाई थी। अब तो कार्य समितिके निर्णयके ठीक होनेपर मुझे और भी अधिक विश्वास है; पर यदि मुझे यह मालूम हुआ कि देश मेरे कार्यका विरोध करता है, तो मैं इसका कुछ खयाल न करूँगा । मैं तो सिर्फ अपने कर्त्तव्यका पालन करूँगा । जो नेता अपनी अन्तरात्माकी आवाजके विरुद्ध आचरण करता है वह किसी कामका नहीं; क्योंकि उसके आसपास तो हर किस्मके विचार रखनेवाले लोग रहते हैं । यदि वह अपने अन्तःकरणकी प्रेरणापर अटल न रहै और उसके संकेतके अनुसार न चले तो वह बिना लंगरवाले जहाजकी तरह न जाने कहाँ बह निकलेगा । और इन सबसे बढ़कर तो यह बात है कि यदि संसार मुझे न अपनाये तो इसे मैं सहन कर लूंगा; पर ईश्वरसे मुँह मोड़ना मेरी कल्पनामें भी नहीं आ सकता । संघर्ष के इस नाजुक अवसरपर मैंने जो सलाह दी यदि वह न दी होती तो वह ईश्वर और सत्य दोनोंसे मुँह मोड़ना होता । भारतके अनेक स्थानोंसे -क्या सहयोगी और क्या असहयोगी, सबकी तरफसे - मेरे पास धड़ाधड़ तार और पत्र चले आ रहे हैं। उनमें बारडोली के निर्णयपर मुझे धन्यवाद दिया जा रहा है और जिनसे मेरे इस विश्वासकी पुष्टि होती है कि देशने इस निर्णयका स्वागत किया है। मालूम होता है कि लाहौर के इन सज्जनने किसी गरमा-गर्म बाजारू बातचीतको जरूरत से ज्यादा महत्त्व दे दिया है । बारडोली के इस निर्णयने पहले के तमाम अनुमानोंको उलट-पलट दिया है। इससे लोगों में कुछ ऐसी भावना आना स्वाभाविक ही था । यह खबर सुनते ही लोगोंके दिलको जो धक्का पहुँचा होगा, उसको मैं समझ सकता हूँ । पर मुझे यह भी विश्वास है कि जब लोग अहिंसा के भीतरी और व्यावहारिक आशयका विश्लेषण करने लगेंगे, तब वे कार्य समिति निष्कर्ष के सिवा किसी दूसरे निष्कर्षपर पहुँच ही नहीं सकते ।

 
  1. १९१९ में ।