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भारतीय कांग्रेस कमेटीके प्रस्तावके अनुसार कानूनकी अवज्ञा १५ जनवरी, १९२२ से शुरू होनेवाली थी । इसलिए में जानना चाहता हूँ कि निर्धारित समयसे पूर्व ही इस तरहकी जो अवज्ञा की गई हैं, उसके सम्बन्ध में आपकी सम्मति क्या है । इसके अलावा, कृपया यह भी बतायें कि क्या इन नाटकोंके अभिनेताओंने अवज्ञाको भावनासे प्रेरित होकर सरकारको यह पूर्व सूचना देकर कि वे एक गैर-कानूनी नाटकका अभिनय करने जा रहे हैं और इस प्रकार गिरफ्तारियों- को न्यौता देकर ठीक काम किया ?
इसके साथ ही में उस विप्लवी साहित्यकी ओर भी आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ जो दिल्ली तथा अन्य स्थानोंसे प्रकाशित हो रहा है। और छोटे-छोटे बच्चों तथा कुछ गैरजिम्मेदार स्वयंसेवकों द्वारा जिसका सार्वजनिक पाठ किया जाता है और जिसमें ऐसी सामग्री है जो अहिंसक असहयोग के सिद्धांतसे स्पष्ट ही मेल नहीं खाती। क्या में पूछ सकता हूँ कि इस प्रकारके प्रचारसे सहायता मिलनेकी बजाय शरारतपूर्ण परिणाम ही नहीं निकलेंगे ?

यदि यह नाटक १५ जनवरीसे पहले खेला गया था तो निश्चय ही अनुचित था । यदि प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीकी अनुमतिके बिना ऐसा किया गया हो, तो यह भी अनुचित था । सविनय अवज्ञाके प्रत्येक रूपके लिए स्थानीय कांग्रस कमेटीकी पूर्वस्वीकृति अनिवार्य है। यदि इस नाटकका उद्देश्य अनावश्यक रूपसे उत्तेजना और घृणा फैलाना रहा हो, तो इस दृष्टिसे भी इस नाटकका खेला जाना अनुचित था । यदि यह मान लिया जाये कि जिन शर्तोंका मैंने उल्लेख किया है, उन सबको पूरा किया गया था, तो नाटकके व्यवस्थापकोंने शालीन ढंगसे सरकारको पूर्वसूचना देकर बिलकुल ठीक किया, क्योंकि सविनय अवज्ञाका मर्म यही है कि वह सार्वजनिक या प्रकट रूपसे की जाती है और विशेष रूपसे उन्हें बताकर की जाती है जो गिरफ्तारी करनेका काम करते हैं ।

जहाँतक "विप्लवी साहित्य" का सम्बन्ध है, यह दुःखकी बात है कि पत्र लेखक द्वारा उल्लिखित पुस्तिकाओं जैसी चीजें प्रकाशित होती हैं और उनका इतना अधिक प्रचार होता है । पत्र लेखकने ऐसी दो पुस्तिकाओंका उल्लेख किया है। मैं उनके नाम नहीं दे रहा हूँ । एक अन्य पत्र लेखकने इनमें से एक पुस्तिका मेरे पास मेरे ज्ञानवर्धन और सम्मतिके लिए भेजी है। इसका नाम और इसकी विषयवस्तु दोनों ही आपत्ति- जनक हैं; उनमें घृणाके अलावा और कुछ नहीं है । यह हमारा कर्तव्य है कि हम प्रत्येक अन्यायको जनताकी नजरोंमें लायें, लेकिन इसके अनेक तरीके हैं। किसी बातको आपत्तिजनक ढंगसे दूसरोंपर आक्षेप करते हुए पेश करनेसे कोई लाभ नहीं । आक्षेप तो तथ्यमें ही निहित है । इस प्रकारके तथ्योंको बढ़ा-चढ़ाकर पेश करनेसे, जो दोष हम दिखाना चाहते हैं, वह पूरी तरह उभर नहीं पाता, तथा वर्तमान समयमें, जब कि लोगोंने अहिंसाकी शपथ ली है, इस प्रकारके साहित्यका प्रकाशन बहुत निन्दनीय है । इससे क्रोध की भावना फैलती है और सविनय अवज्ञाका काम और भी कठिन हो जाता है ।