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पत्र : जवाहरलाल नेहरूको


था; मैं लाभप्रद सन्देश नहीं भेज सकता था और मैं व्यर्थ ही अपनी आत्माको कष्ट पहुँचाता था । मैंने अनुभव किया कि जेलमें बैठकर आन्दोलनका पथ-प्रदर्शन करना मेरे लिए असम्भव है । इसलिए में तबतक प्रतीक्षा ही करता रहा जबतक कि बाहरवालों से मिलने और उनसे खुलकर बातें करने में समर्थ नहीं हुआ । फिर भी, मेरी बात सच मानो, मैंने केवल सैद्धान्तिक दिलचस्पी ली; क्योंकि मैंने महसूस किया कि कोई निर्णय करना मेरे अधिकारके बाहर है और मैंने देखा कि मैं बिलकुल सही रास्तेपर हूँ । मुझे याद है कि किस तरह हर बार जेलसे छूटने के समयतक मेरे जो विचार बनते थे, उन्हें तुरन्त रिहाईके बाद और रूबरू जानकारी मिलने पर बदलना पड़ता था। जो कुछ भी हो, जेलके वातावरणके कारण हमारे मनमें सारी बातें नहीं रहतीं। इसलिए मैं चाहूँगा कि तुम बाहरकी दुनियाको अपने खयालसे ही निकाल दो और यह समझ लो कि वह है ही नहीं । मैं जानता हूँ कि यह काम बहुत ही कठिन है, परन्तु यदि कोई गम्भीर अध्ययन शुरू कर दो और शरीर श्रमका कोई काम हाथमें ले लो तो यह काम हो सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि तुम कुछ भी करो, मगर चरखेसे न उकताओ। तुम्हारे और मेरे पास अपने-आपसे खिब्त होने के कारण हो सकते हैं, क्योंकि हमने बहुत से ऐसे काम किये हैं और ऐसी बहुत-सी बातोंका विश्वास किया है । किन्तु इसपर अफसोस करने के लिए कभी कोई कारण नहीं मिलेगा कि हमने चरखेपर क्यों श्रद्धा केन्द्रित की या मातृभूमि के नामपर हमने रोज इतना अच्छा सूत क्यों काता। तुम्हारे पास 'भगवद्गीता' का एडविन अर्नाल्ड कृत अनुवाद तो है । मैं तुम्हें एडविन अर्नाल्ड- जैसा बेमिसाल अनुवाद तो नहीं दे सकता, मगर मूल संस्कृतका उल्या यों है, सत्प्रयत्न बेकार नहीं जाता, नष्ट तो होता ही नहीं । इस धर्मका स्वल्प पालन भी मनुष्यको महान् भयसे बचा लेता है ।" इस धर्मका आशय कर्मयोगसे है और हमारे युगका कर्मयोग चरखा है । प्यारेलालकी मार्फत मेरा खून जमा देनेवाली बातें तुमने कहलाई थीं, लेकिन अब तुम्हारा उत्साहवर्धक पत्र आना चाहिए ।

तुम्हारा,
मो० क० गांधी

[ अंग्रेजीसे ]
ए बंच ऑफ ओल्ड लेटर्स