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महल बना सकता है और अगर हम निरन्तर इसी बातका विचार करते रहें कि हम जेलमें बन्द हैं तो वह उसे कष्टकारक भी बना सकता है। असहयोगीको यदि जेल कष्टकारक लगती है तो वह असहयोगी कहला ही नहीं सकता। मीराबाईको जहरका प्याला अमृत के समान जान पड़ा। सुकरातने जहरके प्यालेको अपने हाथमें लेकर आत्माकी अमरताके सम्बन्धमें अपने प्रिय शिष्यको ऐसा व्याख्यान दिया जिसे संसार सदैव याद रखेगा। उनकी मधुर भाषासे यह सिद्ध हो जाता है कि जहर देने वाले दरोगा अथवा जहर पीनेकी सजा देनेवाले न्यायाधीशंके प्रति उनके मनमें तनिक भी द्वेष अथवा रोष न था । संसारके इतिहासमें ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाते हैं ।

असहयोगियोंको अदालतोंका त्याग सिर्फ राजनीतिक मामलोंमें ही नहीं करना है । उनपर किसीने कोई गन्दा आरोप लगाया हो तो भी जिन अदालतोंका उन्होंने परित्याग कर दिया है उन अदालतोंमें वे अपना बचाव नहीं कर सकते। अपराध करना, दुःख की बात है; जगत् हमें अपराधी माने इसमें दुःखका कोई कारण नहीं। अपने पापको छिपाकर रहनेवाले अनेक पापी धर्म-धुरन्धर कहलाते हैं और भाररूप होकर पृथ्वीपर विचरण करते हैं। लेकिन उन्हें अपने जीवनमें जय मिलती हो, ऐसी बात नहीं; उन्हें तो हम जगत्के ठग मानते हैं ।

अदालतों में जिन लोगोंको सजा होती है उन सब लोगोंको हम अपराधी नहीं मानते, बल्कि प्रत्येक अनुभवी व्यक्तिको मालूम है कि अनेक निर्दोष व्यक्तियोंको अदालतोंमें सजा हो जाती है और दोषी छूट जाते हैं। एक वकीलके रूपमें मैंने भी ऐसे अनेक उदाहरण देखे हैं । अदालतोंमें जाना चौपड़की बाजी खेलने के समान है। किसीका दाव सीधा पड़ता है और किसीका उलटा । जिसका दाव सीधा पड़ता है उसे ही योग्य माना जाता हो सो बात नहीं । चौपड़ खेलनेवाला प्रत्येक व्यक्ति ऐसे अनेक उदाहरणोंकी याद कर सकता है जिसमें कोई खिलाड़ी बार-बार हारता ही जाता है और लाख प्रयत्न करनेपर भी उसका दाव सीधा नहीं पड़ता । दुर्योधन जीत गया और पाण्डवोंकी हार हुई, सो कोई इस कारण नहीं कि पाण्डवोंको जुआ खेलना नहीं आता था । बेचारे युधिष्ठिरने मेहनत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन पाण्डवोंको तो अमर होना था । धर्मके साथ हमेशा दुःख-ही-दुःख जुड़ा हुआ है यह बात उन्हें फिरसे सिद्ध करनी थी । इसीलिए पाण्डव पराजित हो गये लेकिन इन पराजित पाण्डवोंकी आज जगत् पूजा करता है ।

श्री गोविन्दजीकी दुनिया तो उनके मित्र हैं । उनके मित्र उनके सम्बन्धमें क्या सोचते हैं ? मुझे अभीतक उनका एक भी ऐसा मित्र नहीं मिला जो उन्हें अपराधी मानता हो । मेरी आँखोंके सम्मुख अब भी उनका आँसुओंसे भीगा चेहरा है । उनपर मुकदमा चलेगा अथवा क्या होगा, इसकी जब मुझे खबरतक न थी, उस समय मेरे सन्देहको दूर करनेके लिए बीमारीकी हालत में भी वे मेरे पास आये और उन्होंने रोते-रोते मुझे बताया कि उन्होंने किसी भी व्यक्तिको भड़काने में तनिक भी भाग नहीं लिया है। उन्होंने गद्गद कंठसे कहा : 'मेरे खयालमें आप इतना तो मानेंगे कि मुझमें कमसे कम इतनी समझ तो है कि जिन पारसियोंके साथ मेरा उठना-बैठना है, जिनकी