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कैदियोंका क्या हो ?

आइए, अब इसके गुणदोषोंपर विचार करें। क्या अपनी प्रतिज्ञाको भंग करके भी कैदियों को छुड़वाना हमारा धर्म है ? सत्याग्रहका अर्थ ही यह है कि राज जाये, पाट जाये, कुटुम्ब जाये अथवा प्राण जायें तो भी हम सत्यको न छोड़ें। सत्यको छोड़कर यदि हम कैदियोंको रिहा करवायेंगे तो स्वयं कैदी ही शरमिन्दा हो उठेंगे । वे तो स्वराज्य मिलने पर ही रिहा होना चाहते हैं । वे सम्मानपूर्वक रिहा होना चाहते हैं। वे दुःख भोगने के लिए ही जेल गये हैं । वे दुःखको सुख मानते हैं तथा बाहर रहकर जो सुख मिलता है उसे दुःख मानते हैं । इसलिए हमने जो कदम उठाया है वह यदि अन्य दृष्टियोंसे सही हो तो उनके खयालसे भी हम उसे वापस नहीं ले सकते ।

इसके अतिरिक्त सविनय अवज्ञाको चालू रखकर भी क्या हम उन्हें रिहा करवा सकते थे ? उन्हें रिहा करवाने की शक्ति तो हमारी शान्तिमें ही निहित थी । बारडोली अपने बलका प्रदर्शन तभी कर सकता था जब देशके अन्य भाग शान्तिका पालन करते । शान्ति और अशान्ति दोनों साथ-साथ कदापि नहीं चल सकतीं। रात और दिन दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते । इसलिए हम चाहे जिस तरहसे विचार करें हमें एक ही उत्तर मिलता है और वह यह कि सविनय अवज्ञाको मुल्तवी करनेके सिवा हमारे सामने और कोई चारा न था ।

उसका अर्थ यह नहीं कि अब हमें कुछ नहीं करना है । क्षत्रियको यदि एक मार्ग अनुकूल नहीं पड़ता तो वह किसी दूसरे ऋजु मार्गकी खोज करता है। जिस स्थानसे वह भटक जाता है वहांसे वापस मूल स्थानपर आकर अपने बलको आजमाता है । वैसा ही हमें भी करना है। कैदियोंको कोई भूलनेवाला नहीं है।

पण्डितजीकी आत्मा भीतर-ही-भीतर कितनी व्याकुल है सो में अच्छी तरह से जानता हूँ। वे कैदियोंको छुड़वानेके लिए उतने ही उत्सुक हैं जितने हम। वे भी हिन्दुस्तानकी मुखश्रीको उज्ज्वल रखते हुए ही कैदियोंको छुड़वाना चाहते हैं ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन,१९-२-१९२२