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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

दासी है। हमारा आजका प्रयास इस दासत्वसे मुक्ति पानेका है । भारतभूमि यदि इस दासत्वसे मुक्त होना चाहती है तो ऐसा वह अपने प्राचीन अस्त्रों -शान्ति और सत्यके द्वारा ही कर सकती है ।

समस्त पृथ्वी-तलपर इस समय एक भी ऐसा देश नहीं है जो शारीरिक बलमें हिन्दुस्तान से कम हो । अफगानिस्तान-जैसा छोटा देश भी हिन्दुस्तानको धमका सकता है ।

हिन्दुस्तान किसकी सहायता के बलपर इंग्लैंडसे जूझना चाहता है ? जापानकी ? काबुलकी ? वह जिस किसी देशकी सहायतासे इंग्लैंड से लड़ेगा तो उसे उसी देशकी दासता स्वीकार करनी होगी । अतएव इस युगमें यदि हिन्दुस्तान मुक्त होना चाहता है तो उसके पास ईश्वरीय सहायताके सिवा और कोई चारा नहीं है । और ईश्वर तो सिर्फ सत्यका और शान्तिका साथी है । इसलिए गोरखपुरसे मिली देवी चेतावनीसे हमें यही सीखना है कि यदि हम अपना मनोरथ सिद्ध करना चाहते हैं तो हम शान्तिका विकास करें ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन,१९-२-१९२२

१७८. कैदियोंका क्या हो ?

एक सज्जनने बहुत लम्बा पत्र लिखा है, उसमें से में निम्नलिखित भाग उद्धृत करता हूँ :[१]

इसी आशयका एक अन्य पत्र भी है । मैं जानता हूँ कि ऐसी शंका दूसरे लोगोंके दिलोंमें भी अवश्य उठी होगी । उठी हो तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है । लेकिन ऐसी शंकाओंसे पता चलता है कि ऐसे संशयात्मा लोग हमारी लड़ाईके रहस्य अथवा उसकी खूबीको अभीतक समझ नहीं पाये हैं। पण्डित मालवीयजीपर जो आक्षेप लगाया गया है वह अज्ञानवश ही लगाया गया है । सविनय अवज्ञाको बन्द करवाने में पण्डितजीका जरा भी हाथ नहीं है । उसे बन्द करनेका निश्चय तो अपने मनमें मैंने तभी कर लिया था जब मैंने बारडोलीमें गोरखपुरका किस्सा सुना । मैंने बारडोलीसे इस आशय के पत्र भी लिखे थे। मैंने अपने साथियोंके साथ सलाहमशविरा किया और कार्य समितिकी बैठक बुलाने का निश्चय किया । उसके बाद बम्बई गया। पण्डितजी भी अगर यही माँग करें तो इसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है । लेकिन हमने जो निश्चय किया है वह मेरा और कार्य समितिका है, पण्डितजीका इससे कोई ताल्लुक नहीं है ।

  1. उक्त संक्षिप्त अंश यहाँ नहीं दिया जा रहा है । पत्र लेखकने पूछा था कि हजारों नेता और असंख्य लोग जेलमें हैं, उनके सम्बन्ध में क्या पण्डित मालवीयजीको कोई चिन्ता नहीं है; यदि है तो जब ये सब लोग जेलमें हैं, वे समझौता कराने की कोशिश क्यों कर रहे हैं।