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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


तर्कोंको धैर्य के साथ सुना। उसका परिणाम कार्य समितिके प्रस्तावोंके[१] रूपमें जनताके सामने है । प्रायः सम्पूर्ण आक्रामक कार्यक्रमसे बिलकुल पीछे हट जाना राजनीतिक दृष्टिसे भले ही गलत और अबुद्धिमत्ताका काम हो, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह धार्मिक दृष्टिसे बिलकुल सही है, और मैं सन्देह करनेवालों को विश्वास दिलाने का साहस करता हूँ कि मेरे अपमानसे तथा मेरे द्वारा भूल स्वीकार किये जानेसे देशको लाभ ही होगा ।

मैं यदि किसी सद्गुणका दावा करना चाहता हूँ तो वह सत्य और अहिंसा है । मैं यह दावा नहीं करता कि मुझमें अतिमानवीय शक्ति है । मैं वैसी शक्ति पाना भी नहीं चाहता। मुझमें भी वैसा ही कलुषित हाड़-मांस है, जैसा कि मेरे किसी कमजोरसे-कमजोर मानव-बन्धु में । इसलिए मुझसे भी गलतियाँ होनेकी उतनी ही सम्भावना है जितनी किसी और से। सेवाके क्षेत्रमें भी मेरी बहुत-सी मजबूरियाँ हैं, किन्तु उनके अपूर्ण होनेपर भी ईश्वरने उन्हें अबतक सफल बनाया है ।

गलती स्वीकार करना झाड़के समान है, जो गन्दगीको हटाकर सतहको साफ कर देती है। गलती स्वीकार कर लेनेसे मैं अपनेको अधिक शक्तिशाली अनुभव करता हूँ और पीछे हटनेपर भी हमारे उद्देश्यमें अवश्यमेव प्रगति होगी । हठपूर्वक सीधी राह छोड़कर चलनेसे मनुष्य कभी अपने उद्दिष्ट स्थानतक नहीं पहुँचा है।

यह कहा गया है कि चौरीचौराका असर बारडोलीपर नहीं पड़ सकता । यह तर्क दिया जाता है कि बारडोली यदि कमजोर है और यदि वह चौरीचौरासे प्रभा- वित होकर हिंसापर उतर आये तभी खतरेकी बात है । इस बारेमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं है । मेरे विचारमें बारडोलीके लोग भारतमें सबसे अधिक शान्तिप्रिय हैं । किन्तु बारडोली भारतका एक अत्यन्त छोटा भाग है। उसके प्रयत्न तबतक सफल नहीं हो सकते जबतक कि उसे अन्य भागोंसे पूरा सहयोग नहीं मिलता। बारडोलीकी अवज्ञा तभी सविनय होगी जब कि भारतके अन्य भाग अहिंसक रहें। जिस प्रकार दूधसे भरे बर्तन में संखियेका एक छोटा-सा कण भी दूधको पीने लायक नहीं रहने देता, इसी प्रकार चौरीचौराका घातक विष मिलनेसे बारडोलीकी विनय भी अस्वीकार्य हो जायेगी। चौरीचौरा भी उसी प्रकार भारतका प्रतिनिधित्व करता है, जिस प्रकार कि बारडोली करता है ।

आखिरकार चौरीचौरा भी तो हिंसावृत्तिका एक उग्र लक्षण ही है । मेरे मनमें कभी यह खयाल नहीं आया कि जिन स्थानोंमें दमनचक्र चल रहा है वहाँ मानसिक या शारीरिक हिंसा नहीं होती । जो खयाल आया है वह यह कि दमनग्रस्त क्षेत्रों में जो भयानक दमन किया जा रहा है, उसके मुकाबले जनता द्वारा की जानेवाली हिंसा नगण्य है । मैं अब भी ऐसा मानता हूँ और 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंसे भी यह बात भली-भाँति सिद्ध हो जाती है । निषिद्ध क्षेत्रोंमें दृढ़ निश्चयके साथ सभा करनेको मैं हिंसा नहीं कहता। जिस हिंसाका में उल्लेख कर रहा हूँ उसका मतलब यदा-कदा

  1. कार्य समितिकी बैठक वारडोलीमें ११ और १२ फरवरी, १९२२ को हुई थी। उसमें ये प्रस्ताव पास हुए थे ।