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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


कि यह सरकार सामान्यतया खराब और असह्य है । यह खुली स्वीकृति तो आवश्यक ही थी। क्योंकि अब लोगोंके दिलोंसे जेलोंका डर तो दूर हो ही चुका है। लोगोंको भयभीत करनेका दूसरा साधन हुआ शारीरिक दण्ड और खुल्लमखुल्ला लूटपाट, जिससे लोग यह समझ लें कि सत्ताधारियोंकी इच्छा के आगे सिर न झुकानेका क्या फल हो सकता है। इसलिए यही उम्मीद की जा सकती है कि अब शारीरिक दण्ड और रात के धावे पहले की अपेक्षा अधिक ही होंगे, कम नहीं । जब हम इन बातोंको सामान्य मानकर इनके आदी हो जायेंगे तब सरकार के लिए इसके बादकी कुदरती सीढ़ी है दिन-रात गोलियाँ बरसाना; और कुछ समयसे मैं असहयोगियोंको इसी बातकें लिए तैयार कर रहा हूँ कि वे उस अन्तिम पारितोषिककी आशामें रहें जो आजादीको चाहने वाले लोगों के ही लिए सुरक्षित रखा जाता है । स्वेच्छासे खुशी-खुशी प्राण देना मुक्ति पाना है । हिन्दू मतके अनुसार तो स्वतन्त्रताका सर्वोपरि स्वरूप अर्थात् उसी अवस्थामें सम्भव है कि जब मनुष्य स्वेच्छापूर्वक अपने शरीरको अर्पण कर दे और शारीरिक आवश्यकताओंके विषय में बिलकुल उदासीन हो जाये । अनुशासित ढंगकी राजनैतिक स्वतन्त्रता उस उच्चतर स्वतन्त्रताकी पूर्वपीठिका मात्र है । अतएव यह ठीक ही है कि हम अपनी समस्त मिल्कियत यहाँतक कि अपना शरीर भी अपनी राष्ट्रीय स्वतन्त्रताकी प्राप्ति के लिए स्वेच्छापूर्वक अर्पित कर दें ।

सर विलियम मारपीट और लूटपाटकी कार्रवाइयोंका बचाव यह कहकर पेश करते हैं कि "दूसरे सभी देशों में ऐसा ही किया जाता है ।" पर मैं कहता हूँ कि बात हरगिज ऐसी नहीं है । दूसरे देशों में शान्तिपूर्ण सभाएँ, फिर चाहे वे कितनी ही गैरकानूनी क्यों न हों, कभी बलपूर्वक भंग नहीं की जातीं और न भारतमें ही इससे पहले कभी की गईं। ऐसे मौकोंपर तो सभाओंके संचालक और यदि आवश्यकता हुई तो श्रोतागण भी तलब किये जाते हैं और वे जेल पहुँचा दिये जाते हैं । सभ्य सरकार कहलाने के लिए पहला काम यह होना चाहिए कि शारीरिक दण्डकी प्रथा बिलकुल उठा दी जाये। लोग इस बातको याद रखें कि ये सार्वजनिक सभाएँ हिंसा कराने अथवा उसके बारेमें लोगों में प्रचार करनेके लिए नहीं की जाती हैं, बल्कि जनताके बहुमूल्य अधिकारकी परीक्षा करनेके लिए की जाती हैं । वक्ता और दर्शक लोग गिरफ्तार भले ही कर लिये जायें; पर उनपर हमला तो हरगिज न होना चाहिए; न वे पकड़-पकड़ कर घसीटे ही जाने चाहिए।

सर विलियमको अपनी निष्ठुर स्वीकृतिपर मानो शर्म महसूस हुई, इसलिए उन्होंने अपनी निर्लज्ज सफाई के अन्तमें, यह सिद्ध करने के लिए कि अहिंसाकी प्रतिज्ञा करने वाले सब स्वयंसेवक भी शान्तिमय नहीं रहे, अकारण ही गोरखपुरकी दुर्घटनाको घसीटा है । चौरीचौरा के लोगोंका पाशविक व्यवहार किसी तरह भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। पर पता नहीं, उसमें स्वयंसेवक थे भी या नहीं। जिन स्वयंसेवकोंने हिंसापूर्ण कृत्य किये उन्हें शौकसे सजा दीजिए; पर भीड़के इस प्रकारके गलत आचरण के कारण निरपराध और उपद्रवोंसे दूर रहनेवाले लोगोंपर बलप्रयोग करना जायज कैसे हो सकता है ?