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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

काम कर सकता है और इस प्रकार वातावरणकी शान्तिको ठेस पहुँचा सकता है । उनका यह भी कथन है कि आप शताब्दियोंतक उपदेश देनेके बाद भी ३१ करोड़ भारतीयोंके अहिंसात्मक बननेकी आशा नहीं कर सकते । “बुद्ध, चैतन्य, नानक और कबीर-जैसे महान् पैगम्बर, जिन्होंने केवल प्रेम और अहिंसाका उपदेश दिया था, ढाई हजार वर्ष बाद भी भारतको पूर्णतया अहिंसात्मक बना सकने में सफल नहीं हो पाये । जबतक मानवता फरिश्तों और सन्तोंके स्तरतक नहीं उठ जाती, हिंसा बनी रहेगी। यदि देश भविष्य में काफी लम्बे समयतक शान्त बना रहता है, तो भी इसका क्या भरोसा कि दमनके परिणामस्वरूप कुछ लोगों में हिंसा नहीं भड़केगी ? भीड़का मन जब इतना अधिक भड़का दिया जाये कि वह काबूमें न आ सके, तो वह धधक उठेगा और अवश्य पागल हो जायेगा । तो क्या कुछ व्यक्तियोंके अपराधोंके कारण पूरे देशके मन में बसी हुई स्वराज्यको इच्छा, खिलाफतके हल और पंजाबके अत्याचारोंके निराकरणकी आकांक्षा समाप्त कर दी जाये ?"

इतने कठोर तथ्योंके होते हुए, क्या हिंसाको अनिवार्य मानना और उसे भारतसे पूरी तरह मिटानेके बजाय केवल उसे रोकनेकी चेष्टा करना बुद्धिमानी नहीं होगी ? बहुतेरे लोग कहते हैं कि इसका खतरा तो हमेशा बना रहेगा और ऐसे खतरेके बिना सविनय अवज्ञा कभी भी नहीं की जा सकेगी। वे ऐसा आग्रह करते हैं कि आपने स्वयं कहा था कि हमें गैर-कानूनी दमन और सारे खतरों सहित सामूहिक सविनय अवज्ञाके बीच चुनाव करना है। क्या मैं जान सकता हूँ कि इसके जवाब में आपको क्या कहना है ?

प्रश्नोंके रूपमें इस व्याख्यानसे लगता है कि इस संघर्ष तथा उसपर अहिंसाके प्रभावकी जानकारी लोगोंको बिलकुल ही नहीं है । मेरा तात्पर्य यह नहीं कि आप नहीं जानते । आप तो केवल शंकालु व्यक्तियोंके मनकी बात-भर कहते हैं । निश्चय ही यदि मैं वह पाने की कोशिश करूँ जो ईसा मसीह, बुद्ध या मुहम्मद नहीं पा सके तो मुझे निराश होना ही पड़ेगा। बल्कि इसके विपरीत मेरा प्रयत्न तो बेहद छोटा और सादा है। मैं ऐसा नहीं मानता कि भारतको इतना सरल सत्य समझना नहीं सिखाया जा सकता कि उसके लिए सशस्त्र संघर्ष द्वारा स्वराज्य प्राप्तिका स्वप्न देखना कई पीढ़ियों तक असम्भव है । संसार में ऐसा कोई भी देश नहीं जो सशस्त्र संघर्षके लिए इतना अनुपयुक्त हो जितना भारत है । हो सकता है कि अहिंसात्मक सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने के लिए हिंसाकी शक्तियोंको काफी काबू में न रखा जा सके। यदि सारे नेता इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, तो इसका यह अर्थ नहीं कि भारत अहिंसात्मक तरीकोंसे स्वतन्त्रता नहीं पा सकता। एक सत्याग्रही के सामने कई तरहकी सविनय अवज्ञा के रास्ते हैं; किन्तु मैं मानता हूँ कि सामूहिक सविनय अवज्ञाका रास्ता सबसे छोटा है । यदि वह असम्भव साबित होता है तो मुझे सन्देह नहीं कि सविनय अवज्ञाका एक नरम कार्यक्रम तय किया जा सकता है ताकि लोगोंको आत्म-बलिदानकी शिक्षा दी जा सके। इससे जनता कष्ट सहनका नियम सीखेगी और जैसे कि वे आज