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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

उनकी राय निर्णायक होगी । अतः स्वराज्यका अर्थ है भारतकी जनता द्वारा अपनी माँगोंको मनवानेकी क्षमता । वाइसरायके इस विचारसे मेरा पूर्णतः मतभेद है कि यदि स्वराज्य तलवारकी शक्तिसे नहीं आता तो वह अवश्य ही ब्रिटिश संसदकी ओरसे आयेगा । जब लोगोंकी इच्छा " तलवार " से अदम्य हो जायेगी तब ब्रिटिश संसद उसकी पुष्टि करेगी । असहयोगी इस्पातकी तलवारके बदले आत्मोत्सर्ग की तलवारको प्रयोग में लाने का प्रयास कर रहे हैं, भारतकी आत्मा ब्रिटिश इस्पातके मुकाबले पर डटी है । लोक-स्वराज्य क्या है, यह जानने के लिए हमें अधिक कालतक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी ।

जेलोंमें काम

मेरे एक आदरणीय मित्र पूछते हैं कि जब सरकारने हजारों लोगों को जेल जानेका मौका दिया है और हजारों लोग जेल जा भी रहे हैं, तब क्या कैदियोंका जेलोंमें कोई काम करनेसे कतई इनकार करना अधिक अच्छा न होगा । मुझे अन्देशा है कि यह बात नैतिक स्थितिको गलत समझने के कारण कही गई है । हमने जेल-संस्था-को भंग करनेका बीड़ा नहीं उठाया है । हमें स्वराज्यमें भी जेलें तो रखनी ही होंगी इसलिए हमारी सविनय अवज्ञा देशके अनीतिमूलक कानूनोंको भंग करनेकी सीमासे आगे न बढ़नी चाहिए । कानून-भंग सविनय तभी हो सकता है जब जेलके नियमों का पालन खुशी-खुशी और पूरी तरहसे किया जाये, क्योंकि किसी खास नियमका सविनय भंग करने में उस नियमको तोड़ने के लिए रखी गई सजाको खुशी-खुशी मंजूर करना भी आता है । और जब कोई आदमी किसी नियम तथा उसके भंग करनेकी सजा दोनोंका विरोध करता है तब वह विनयशील नहीं रहता और अव्यवस्था तथा अराजकताका कारण बन जाता है । सत्याग्रही एक परोपकारी प्राणी और राज्यका मित्र होने का दावा करता है । अराजकतावादी राज्यका शत्रु अतः जन-शत्रु होता है । मैंने युद्धकी इस भाषाका प्रयोग इसलिए किया है कि तथाकथित वैधानिक रीति बिलकुल बेकार साबित हुई है । लेकिन मैं तो दृढ़तापूर्वक इस मतपर कायम हूँ कि सविनय अवज्ञा शुद्धसे-शुद्ध रूपका वैधानिक आन्दोलन है । यदि उसका सविनय अथवा शान्तिमय स्वरूप एक आभास-मात्र हो तो वह निश्चय ही निन्द्य और पतनकारी हो जायेगा । यदि अहिंसाकी सचाईको मान लिया जाये तो हिंसाकी सम्भावना होनेके कारण ही उग्रतम अवज्ञा-भंगकी भी निन्दा नहीं की जा सकती। किसी भी बड़े या तेज आन्दोलनका संचालन बिना भारी जोखिम उठाये नहीं किया जा सकता और यदि जीवनमें बड़े-बड़े जोखिम न आयें तो फिर उसमें कोई रस ही न रहे। क्या हमें संसारका इतिहास नहीं बताता कि यदि बड़े-बड़े जोखिम न होते तो जीवनमें कुछ भी सरसता न रह जाती ? हमको जो गण्यमान्य लोग और समाजके नेता, संकटका जरा भी चिह्न दिखाई देते ही या जरा भी मारकाटकी ध्वनि कानमें पड़ते ही, भयभीत और घबराये हुए दिखाई देते हैं, यह हमारे समाजकी पतित अवस्थाका ही बिलकुल साफ सबूत है । हम यह तो जरूर चाहते हैं कि मनुष्य के अन्दरसे पाशविक वृत्ति दूर हो जाये; परन्तु हम उसे इसी कारण पौरुषहीन नहीं बना देना चाहते ।