पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 22.pdf/४३४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



४१०
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

'करना नहीं आता'

एक मित्रने एक स्थान में युवराज के स्वागतका बहिष्कार करने के सम्बन्धमें यह लिखा है :[१]

स्थितिका यह चित्रण यथार्थ है । इस तरीकेसे शान्ति कायम नहीं रखी जा सकती। इस समय तो आन्दोलनकी प्रगति में बाधा डालनेवाले स्वयं हम ही हैं । जैसे आवश्यकता से अधिक भोजन करनेवाला मनुष्य अपचसे नहीं बच सकता उसी प्रकार कटुभाषा बोलनेवाला मनुष्य भी अशान्तिको नहीं रोक सकता । अधिक भोजन करनेवाले मनुष्यको अपच अच्छा नहीं लगता; उसी तरह कटुभाषा बोलनेवाले मनुष्यको भी निश्चय ही अशान्ति अच्छी नहीं लगती होगी। किन्तु यदि ये दोनों अपनी-अपनी मर्यादाका पालन नहीं करते तो उनके कार्यका अभीष्ट परिणाम नहीं हो सकता । हम लोगों में अभीतक कहीं-कहीं हिंसा की भावना मौजूद है; इसका कारण यही है कि हमने अभी हिंसाको रोकने का उपाय ही नहीं किया है; विचारसे वाणी और वाणीसे कर्म -- परिणामकी उत्पत्तिका यही क्रम है। यदि हम विचारपर अंकुश न रखें; अपनी वाणीको वशमें न रखें तो इन दोनोंके परिणामको रोकनेका प्रयत्न भी असफल होगा । इसी कारण कांग्रेसको एक प्रस्ताव पास करके इस बार यह बात स्पष्ट करनी पड़ी है कि हमें विचारमें से भी हिंसाको निकाल देनेकी आवश्यकता है । उदाहरणार्थं मौलाना बारीने मुझे एक पत्र में लिखा है कि वे हिंसाका विचार भी अपने मनमें नहीं लाते। कांग्रेसकी ऐसी आज्ञा है अथवा गांधीने ऐसा कहा है, इतना कहना काफी नहीं है । जब हमारा विचार भी ऐसा हो तभी हमें उसके पोषक तर्क सुगमता से मिल सकते हैं ।

इसके सिवा जिन लोगोंने युवराजका स्वागत करनेवाले लोगोंको 'गधा' और 'बन्दर' कहा है उन्होंने तो स्पष्ट हिंसा की है, गाली दी है, अपना रोष प्रकट किया है और इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञाको ही भंग किया है। उन्होंने सभ्य व्यवहारका त्याग किया है। हमें अपने प्रतिस्पर्धी और विरोधीको ऐसे विशेषणोंसे कभी सम्बोधित नहीं करना चाहिए। हमारी भाषामें अवश्य ही अहिंसा होनी चाहिए । जो जुलूसमें जाये, उसका निकाह रद्द हो, ऐसा कहना तो यह सुझाने के समान है कि उसे सजा मिलनी चाहिए। यदि सब स्त्रियाँ इस बातको मानकर युवराजका स्वागत करनेवाले पुरुषोंको त्याग दें तो भारतकी क्या गति हो ? यह तो स्पष्टतः ज्यादती ही हुई ।

ज्यों ही हमारे विचारोंमें परिवर्तन हो त्यों ही हमारे ये नये विचार यदि हमारे नित्य के साथीको स्वीकार न हों, वह उन्हें न समझे तो उसका त्याग किया जाये, यह तो जंगलीपन माना जायेगा । इस तरहसे तो संसारका व्यवहोर एक क्षण भी नहीं चल सकता । विचार-वैषम्य होनेपर भी हमें मित्रता कायम रखनी चाहिए। यदि हम ऐसा नहीं करते तो हिन्दुओं और मुसलमानोंकी एकताका अर्थ ही क्या हुआ ? हिन्दुओं और मुसलमानोंके विचारोंमें कितना बड़ा अन्तर है ? एक पूर्वकी ओर मुँह

  1. पत्रका यह अंश यहाँ नहीं दिया गया है। पत्र लेखकने यह शिकायत की थी कि वक्ता लोगोंसे अहिंसक रहनेका अनुरोध तो करते हैं और निःसन्देह यह चाहते हैं कि अहिंसाका पालन किया जाये, किन्तु लोगोंको यह सब समझानेके लिए जिस भाषाका प्रयोग करना चाहिए, वह भाषा उन्हें नहीं आती ।