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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इकट्ठा करनेसे हमें स्वराज्य नहीं मिल सकता । यदि एक क्षणके लिए यह मान भी लें कि इससे स्वराज्य मिल सकता है तो वह उन लोगोंका ही राज्य होगा और ऐसे राज्यसे असहयोगी तो दूर ही भागेगा ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन,१२-२-१९२२

१६०. सरकारका जवाब

सरकारने बसीठी-पत्रका[१] जो उत्तर दिया है,[२] वह दुःखजनक है । उसमें न तो कहीं पश्चात्ताप दिखाई देता है और न कहीं अपनी भूलोंकी स्वीकृति । बल्कि सरकारने उसमें अथसे इतितक अपनेको निर्दोष बताया है और असहयोगियोंको दोषी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है ।

इस उत्तरको पढ़ने के बाद मेरे मनमें दो विचार उठे इसमें या तो जान- बूझकर झूठी बातें लिखी गई हैं या उत्तरका मसविदा बनानेवालों और अधिकारियों पर सरकारको इतना अधिक विश्वास है कि ये अधिकारी कभी भूल कर भी सकते हैं इस बातको वह नहीं मानती। मैंने मनुष्य जातिके गौरवका विचार करके भी पहली सम्भावनाको छोड़कर दूसरीको स्वीकार किया है ।

ये दोनों बातें भयंकर हैं । जान-बूझकर झूठ बोलना और असत्याचरण करना अथवा अपने दोषको देख ही न पाना और इसी मिथ्या भ्रममें रहना कि मैं तो बेदाग हूँ -मनुष्यको इन दोनों दोषोंसे बचना चाहिए ।

मैं सरकारको दूसरे दोषका दोषी मानता हूँ; क्योंकि मैं समझता हूँ कि मनुष्य अनजानमें बहुत-सी भूलें करता है । जैसे असहयोगी अपनी भूलें नहीं देख पाते वैसे ही सरकारके सम्बन्धमें भी हम क्यों न मानें ? हमारा धर्म तो यह है कि हम अपने दोषों को देखनेके लिए सूक्ष्मदर्शक यन्त्रसे काम लें और दूसरोंके दोष दूरबीनके द्वारा देखें । केवल तभी हम बड़ी मुश्किलसे अपने दोष देख पायेंगे। जो व्यक्ति या समाज इस नीति के अनुसार व्यवहार करते हैं वे सदा सुखी रहते हैं। जो अपने दोषोंको पर्वतके बराबर मानता है उसे दूसरोंकी भूलें खोजने के लिए बहुत कम समय रहता है । और इसके बाद तो मनुष्यको स्वयं अपने ही दोषोंपर पश्चात्ताप होता रहेगा । किन्तु मनुष्य स्वभावतः दुःखी होनेकी इच्छा नहीं करता। वह अपने पहाड़ जैसे दिखाई देनेवाले दोषोंको जल्दी सुधारनेकी कोशिश करता है ।

मैं इसी नियमका अनुसरण करना चाहता हूँ और सरकारके दोष देखनेके लिए आँखों के सामने दूरबीन रखना चाहता हूँ । दूरबीनकी एक विशेषता पाठकोंको याद रखनी चाहिए। दूरबीन हमें केवल दूरकी ही वस्तुओंको, सो भी अस्पष्ट और छोटे रूपमें, दिखाती है; और नजदीककी चीजें तो उससे दिखाई ही नहीं देती। मुझे याद

  1. देखिए " पत्र : वाइसरायको ", १-२-१९२२ ।
  2. देखिए परिशिष्ट २ ।