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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वैद्यने रोगीसे जिस दवाको और जिस ढंगसे लेनेके लिए कहा है यदि रोगी उसी दवाको और उसी ढंगसे न ले तो इसमें दोष रोगीका है, वैद्यका नहीं। इसी प्रकार यदि हम स्वराज्यकी शर्तोंका पालन नहीं करते तो इसमें दोष हमारा ही है ।

किन्तु हमें इस समय गुण-दोषका विचार नहीं करना है। हमें तो यही विचार करना है कि स्वराज्य कैसे मिल सकता है। जैसे रोगी ठीक दवा लिये बिना नीरोग नहीं हो सकता वैसे ही स्वराज्य भी ठीक शर्तोंका पालन किये बिना अवश्य ही नहीं मिलेगा। स्वराज्य स्वयंसेवक बन जानेसे ही नहीं मिलेगा, बल्कि स्वयंसेवक बननेके लिए जो शर्तें रखी गई हैं उनका पालन करनेवाले स्वयंसेवक ही स्वराज्य ले सकते हैं। यदि सेना के लिए पांच फुट ऊँचे जवानोंकी भरती की जाती हो और उनमें कोई चार फुटवाला बौना आ घुसे तो वह लड़ाईकी जीतका कारण नहीं होगा, बल्कि सेना के लिए भाररूप हो जायेगा और यह भी सम्भव है कि वह उसकी हारका कारण बन जाये। इसी प्रकार शान्ति और अहिंसाका पालन करनेवाले स्वयंसेवकों में अशान्तिकारी मनुष्य भरती हो जायें तो वे नुकसान ही पहुँचायेंगे । घरमें और घरके बाहर सदा हाथकते सूतकी खादी पहननेवाले लोगोंको ही स्वयंसेवकोंमें भरती होनेकी अनुमति है; तो फिर मिलके कते सूतके तानेसे बुनी गई खादी पहननेवाले मनुष्य अथवा भरती होते समय और स्वयंसेवकका काम करते समय ही शुद्ध खादी पहनने- वाले मनुष्य स्वराज्य कैसे दिला सकते हैं? उन्होंने तो पहलेसे ही धोखा देनेका धन्धा स्वीकार कर लिया है। यह खादी पहनने की बात, जो आसान लगनी चाहिए, वह बहुत कठिन लगती जान पड़ती है; जिसमें कमसे कम खर्च आता है वह बहुत खर्चीली मानी जाती मालूम होती है।

खादीसे स्वराज्य मिल सकता है सम्भव है कि इसका लोगोंको विश्वास न हो । किन्तु ऐसा हो तो उन्हें कांग्रेस अधिवेशन में और कांग्रेस कमेटीकी बैठकमें खादीके पक्ष में हाथ नहीं उठाने चाहिए थे । यदि हम करने योग्य कार्योंको मन लगाकर नहीं करेंगे तो हम कुछ भी प्रगति कर न पायेंगे। इस प्रकार तो अबतक किया हुआ श्रम भी व्यर्थ हो जायेगा ।

यदि हम गरीब से गरीब, अधमसे-अधम, अकालसे पीड़ित और भीख माँगनेवाले लोगों के लिए भी स्वराज्य प्राप्त करना चाहते हों और यदि हम भारतकी भुखमरीको मिटाना चाहते हों तो हाथ-कते सूतकी खादी पहने बिना कभी काम न चलेगा क्योंकि उसके बिना किसी दूसरे तरीकेसे उनके घरमें हम अन्न वस्त्र पहुँचा ही नहीं सकते ।

अस्पृश्यता के सम्बन्ध में भी यही बात है । जो लोग अस्पृश्यताको हिन्दू धर्मका अंग मानते हैं उनको असहयोगी बनने का कोई अधिकार नहीं है। इस सरकारने सामाजिक मतभेदोंको बड़ी चतुराईके साथ बढ़ावा दिया है। हम जहाँ भी जायें वहाँ अस्पृश्य ही माने जाते हैं। हमारे साथ ऐसा व्यवहार होता है मानो हम सर्वत्र ठोकरें तथा गालियाँ खाने लायक हैं और दूर रखे जानेके ही योग्य हैं। हमारा जेलमें रहना ही ठीक है । इस सबसे स्पष्ट है कि हम अस्पृश्य माने जाते हैं । यही बातें ढढ़ों और भंगियोंके साथ किये जानेवाले हमारे व्यवहारमें भी देखी जा सकती हैं।