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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

चलाना चाहते हैं, चाहें तो अपना अलग दल बनाकर अलग संघर्ष करें। इससे असहयोगीका कार्य कठिन हो जायेगा, किन्तु उतना कठिन नहीं जितना कि तब होगा जब कि उसे अपने ही घरमें शत्रुसे लड़ना हो । उसकी देह शुद्ध रहनी चाहिए। किसी प्रकारकी भी आन्तरिक अशुद्धि शारीरिक रोग बन जायेगी और वह घातक सिद्ध हो सकती है। बाहरका कोई भी आक्रमण कभी भी घातक नहीं होता। इसलिए सफलताकी पहली और एकमात्र शर्त यह है कि हम अपने प्रति सच्चे रहें ।

इसलिए डॉ० राजन् द्वारा की गई स्वीकारोक्ति शक्ति प्रदान करनेवाली एक प्रक्रिया है । इससे उन्हें तो बल मिलता ही है, किन्तु साथ ही उनके उस ध्येयको भी बल मिलता है, जिसके लिए वे संघर्ष कर रहे हैं। यदि असहयोगका अर्थ पूर्णतया आत्मशुद्धि नहीं है, तो वह एक बुरा और भ्रष्ट सिद्धान्त है; सचमुच में वह एक 'मनहूस' शब्द है । आन्तरिक भ्रष्टाचारका दृढ़ता और कठोरताके साथ किया गया प्रतिरोध सरकारका पर्याप्त प्रतिरोध है । ज्यों ही आत्मशुद्धिकी प्रक्रिया पूर्ण होगी, हमें उस प्रणालीसे मुक्ति मिल जायेगी जिससे हम संघर्ष करते प्रतीत होते हैं ।

उस लाभमें कुछ भी नहीं धरा है जो कि 'नवजीवन' में प्रकाशित मेरे उस लेखसे उठाया जा रहा है, जिसका उल्लेख डॉ० राजन्ने किया है। मैंने देखा है कि 'स्वराज्य' में मेरे उस सारे लेखका, जिसे मैंने भली-भांति सोच-विचारकर लिखा है, एक अच्छा अनुवाद पहले ही प्रकाशित हो चुका है। वह लेख अपनी व्याख्या आप करता है ।

[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, ९-२-१९२२

१५३. टिप्पणी : समितिके [१]साथ हुए समझौतेपर

[९ फरवरी, १९२२ ]

१. सामूहिक सविनय अवज्ञाके सम्बन्ध में,श्री गांधी कार्य समितिको यह सलाह देनेवाले हैं कि वह ३१ दिसम्बर, १९२२ तक स्थगित रखी जाये।
२. अन्य कार्यक्रमोंके सम्बन्धमें,श्री गांधी कार्य समितिसे यह कहेंगे कि शराब और कपड़े की दुकानोंपर धरना देनेका तरीका उन्हीं उपायोंतक सीमित रखा जाये जो लोगोंको भड़काने या कानूनकी अवहेलना करनेवाले नहीं हैं और विशेषकर
  1. १४ और १५ जनवरी, १९२२ को नेताओंकी परिषद् द्वारा नियुक्त समिति । जयकरने दि स्टोरी आफ माई लाइफ, खण्ड १, पृष्ठ ५५५ पर ९ फरवरी, १९२२ के अन्तर्गत लिखा है:“...मैंने वे कुछ शर्तें जिनपर वे [ गांधी ] और समिति राजी हो चुके थे, लिखकर उन्हें दे दीं। उनका व्यवहार सदाकी भाँति ईमानदारी भरा है और उन्होंने उन्हें मान भी लिया । "