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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुआ था । असहयोगी दलकी तथाकथित गैर-कानूनी कार्रवाइयाँ, जो सरकारकी अधिसूचनाओंके विरुद्ध शुरू की गई थीं, अधिसूचनाओंको वापस लेते ही स्वयमेव बन्द हो जातीं; क्योंकि इन क्षोभकारी अधिसूचनाओंके वापस लेते ही स्वयंसेवक दलका संगठन, तथा सार्वजनिक सभाएँ गैर-कानूनी गति-विधियाँ नहीं रह जातीं । जब कलकत्ते में सुलहकी बातचीत चल रही थी, उस समय भी फतवा कैदियोंकी रिहाईकी माँग पेश की गई थी, और अब तो मैं अन्यत्र कही गई अपनी यह बात फिर दुहराऊँगा -- यदि यह कहना गैर-वफादारी है कि वर्तमान शासन प्रणालीके अन्तर्गत फौजी अथवा दूसरी नौकरी करना ईश्वर और मानवताके प्रति पाप है, तो मेरा खयाल है ऐसी गैरवफादारी जारी ही रहनी चाहिए।

सरकारने विज्ञप्तिमें यह आरोप लगाकर मेरे साथ क्रूर अन्याय किया है कि मैं प्रस्तावित गोलमेज परिषद् केवल अपने निर्णयको स्वीकार करानेके लिए ही चाहता हूँ । मैंने कांग्रेसकी माँगें जरूर यथासम्भव स्पष्ट शब्दोंमें पेश की थीं, जिससे कि किसी तरह की गलतफहमी न हो और यह मेरा फर्ज भी था । कोई भी कांग्रेसी अपनी स्थितिको स्पष्ट किये बिना किसी परिषद् में नहीं जा सकता था; और मैंने आशा की थी कि सरकार मेरे या अन्य किसी भी कांग्रेसीके प्रति यह माननेकी शिष्टता तो दिखायेगी ही कि हम तर्क तथा बुद्धिसंगत बातोंको स्वीकार करनेसे इनकार नहीं करेंगे। यदि कोई भी व्यक्ति आकर मुझे यकीन दिला दे कि कांग्रेसकी खिलाफत, पंजाब और स्वराज्य-विषयक माँगें अनुचित हैं तो मैं अवश्य ही अपना कदम पीछे हटा लूंगा और जहाँतक मेरा सवाल है, मैं अपनी भूलको सुधार लूंगा। भारत सरकार जानती है कि मेरा रुख सदासे ऐसा ही रहा है।

बड़े आश्चर्य की बात है कि विज्ञप्ति में मेरे घोषणा-पत्रकी[१]माँगोंको कार्य समितिकी माँगोंसे भी अधिक बताया गया है । पर मैं दावेके साथ कहता हूँ कि वे कार्य समितिकी माँगोंसे बहुत कम हैं, क्योंकि आज तो मैं आक्रामक ढंगको सविनय अवज्ञाको सर्वथा बन्द कर देनेके बदले में सिर्फ इतना ही चाहता हूँ कि यह नृशंस दमन बन्द कर दिया जाये, उसके अन्तर्गत जिन लोगोंको सजाएँ दी गई हैं वे छोड़ दिये जाय और सरकारी नीतिकी स्पष्ट रूपसे घोषणा की जाये । कार्य समितिकी माँगोंमें तो गोलमेज परिषद् भी शामिल थी। मैंने अपने घोषणा-पत्र में गोलमेज परिषद्की माँग, बिलकुल नहीं की है। यह सच है कि गोलमेज परिषद्की माँगको कुछ इस दृष्टिसे नहीं छोड़ा गया है कि यह हमारी सिद्धिमें सहायक होगा। सच तो यह है कि यह अपनी वर्तमान कमजोरी- को स्वीकार करना है । मैं निःसंकोच भावसे यह स्वीकार करता हूँ कि तबतक भारतकी रग-रग में अहिंसा की भावना नहीं भर जाती, और वह अनुशासनयुक्त शक्ति नहीं प्राप्त कर लेता, जो कि केवल अहिंसाके द्वारा ही प्राप्त हो सकती है, तबतक वह अपनी माँगोंको पूरा नहीं करा सकता। इसी कारणसे मैं अब सोचता हूँ कि लोग सबसे पहले इस पागलपन-भरे दमनसे छुटकारा पायें और फिर अधिक पूर्ण संगठन

 
  1. देखिए “ पत्र : वाइसरायको ", १-२-१९२२