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भारत सरकारको प्रत्युत्तर

बम्बईके उपद्रवोंके सम्बन्धमें लोगोंको भ्रम हो जानेकी जो सम्भावना है, उसे मैं दूर कर देना चाहता हूँ । वे उपद्रव लज्जाजनक और निन्दनीय तो थे ही, किन्तु यह याद रखना चाहिए कि उनमें जिन ५३ व्यक्तियोंकी जानें गई, उनमें ४५ से अधिक असहयोगी या उनसे सहानुभूति रखनेवाले उपद्रवकारी थे और जिन ४०० व्यक्तियोंको चोटें पहुँचीं उनमें से भी निश्चित रूपसे ३५० से ऊपर उसी वर्गके थे। मैं शिकायत नहीं करता । उन असहयोगियोंको तथा उनके हिमायती हुल्लड़बाजोंको वही मिला जिसके कि वे पात्र थे । उन्होंने हिंसा शुरू की-उसका फल उन्होंने पाया । लेकिन इस बातको भी भूलना नहीं चाहिए कि असहयोगियोंने ही इंडिपेंडेंटों तथा सहयोगियोंकी सहायतासे १७ तारीख के दुर्भाग्यपूर्ण दिनके दो दिन बादतक होनेवाले उपद्रवोंका शमन कर शान्ति स्थापित की। हाँ, इस दिशामें बम्बई सरकारके योगदानका खयाल तो रखना ही है ।

मैं सरकार के इस कथनको पूरी तरह अस्वीकार करता हूँ कि संशोधन “ दण्डविधि अधिनियम (क्रिमिनल लॉ एमेंडमेंट ऐक्ट ) का उपयोग केवल उन्हीं संघोंतक सीमित था, जिनके अधिकांश सदस्य बार-बार हिंसा तथा डराने-धमकानेके तरीकेका अवलम्बन करते थे । "भारतकी जेलोंमें आज जो लोग कैद हैं, उनमें से कुछ तो सर्वथा निरीह- निर्दोष ढंगके लोग हैं। इनमें से शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने हिंसा या डराने- धमकाने के तरीकेका सहारा लिया हो, किन्तु वे सब उक्त कानूनके अन्तर्गत दण्डित किये गये हैं । उक्त कथनको सिद्ध करनेके लिए अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं। इसी प्रकार इस बातके समर्थनमें भी प्रचुर प्रमाण दिये जा सकते हैं कि जहाँ-जहाँ सभाएँ भंग की गई हैं, लगभग ऐसे सभी स्थानोंपर हिंसाका कतई कोई खतरा नहीं था ।

भारत सरकार इस बातको अस्वीकार करती है कि अली भाइयों द्वारा खेद प्रकट करनेपर वाइसरायने यह सभ्य नीति अख्तियार की थी कि असहयोगियोंकी अहिंसक गतिविधियोंमें सरकार दखल नहीं देगी । सरकारकी इस अस्वीकृतिपर मुझे अत्यधिक दुःख है । सरकारने अपने उत्तरमें विज्ञप्तिका जो अंश उद्धृत किया है, वही मेरी राय में इस बातका काफी प्रमाण है कि सरकारका मंशा ऐसी हलचलों में हस्तक्षेप करनेका नहीं था । सरकार यह अनुमान नहीं लगाने देना चाहती थी कि "ऐसे भाषण देना जिनसे अपेक्षाकृत कम हिंसात्मक ढंगके असन्तोषको उत्तेजना मिलती हो, कानूनके खिलाफ अपराध नहीं ।" मैंने यह कभी नहीं कहा कि किसी भी कानूनको भंग करना उस कानूनके खिलाफ अपराध नहीं है । लेकिन मैंने यह अवश्य कहा है, और अब भी कहता हूँ कि उस समय सरकारका यह विचार नहीं था कि अहिंसक हलचलोंके लिए मुकदमे चलाये जायें, यद्यपि हो सकता है कि प्राविधिक दृष्टिसे उनसे कानून-भंग होता हो ।

जहाँतक परिषद्की शर्तोंका सम्बन्ध है, सरकारी जवाबमें मेरे पत्रके दो-तीन शब्द “तथा अन्य जरियोंसे" छोड़ दिये हैं, जो "कलकत्तेके भाषण" के बाद आने चाहिए थे। मैं फिर दोहराता हूँ कि जहाँतक मैं "कलकत्तेके भाषणसे तथा अन्य जरियोंसे" जान पाया हूँ, वे शर्तों प्रायः वही थीं जिनका उल्लेख मालवीय परिषद् के प्रस्तावोंमें