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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  मेरे पत्रको सरसरी तौरपर पढ़ लेनसे ही यह मालूम हो जाता है कि यद्यपि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीने ४ नवम्बरको दिल्लीमें हुई अपनी बैठकमें सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलानेका अधिकार दे दिया था, फिर भी वह आरम्भ नहीं हुआ । मैंने अपने पत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया था कि १७ नवम्बरको बम्बई में हुई शोचनीय घटनाओंके कारण प्रस्तावित सामूहिक सविनय अवज्ञा आन्दोलन अनिश्चित कालके लिए स्थगित कर दिया गया है। यह निर्णय यथासमय प्रकाशित कर दिया गया था और सरकार तथा जनता दोनों को यह बात मालूम है कि अब भी लोगों में जो कुछ हिंसा की प्रवृत्ति रह गई है उसको दूर करने के लिए भगीरथ प्रयत्न किया जा रहा है। यह बात भी सरकार और जनता दोनोंको मालूम है कि स्वयंसेवकोंसे एक विशेष प्रतिज्ञा पत्रपर दस्तखत कराये जानेकी तजवीज की गई थी जिसका सुविचारित उद्देश्य यह था कि स्वयंसेवक दलमें सिर्फ चरित्रवान् लोगोंको ही भरती किया जाये । इन स्वयंसेवक संघोंका मुख्य उद्देश्य जनतामें अहिंसा के संस्कारोंको दृढ़ करना और असहयोगसे सम्बन्धित सभा-समारोहों में शान्ति कायम रखना था। दुर्भाग्यवश बम्बईकी दुर्घटनाओं और शायद उससे भी अधिक उसी दिन हुई कलकत्तेकी पूर्ण हड़तालके कारण भारत सरकार अपना सन्तुलन खो बैठी । मैं इस बात से इनकार नहीं करना चाहता कि कलकत्ते में डराने-धमकाने के तरीकेसे भी थोड़ा-बहुत काम लिया गया होगा, परन्तु मैं यह कहने की धृष्टता करता हूँ कि इस डराने-धमकानेसे नहीं बल्कि कलकत्तेकी पूर्ण हड़तालसे उत्पन्न कुढ़नके कारण ही भारत सरकार और बंगाल सरकारका दिमाग भिन्ना उठा । दमन तो पहलेसे ही हो रहा था; किन्तु उसके खिलाफ कुछ भी कहा या किया नहीं गया। लेकिन जिन सरकारी विज्ञप्तियोंमें घोषणा की गई कि स्वयंसेवक संघों के उद्देश्य से निपटने के लिए दण्डविधि संशोधन अधिनियमका उपयोग किया जायेगा तथा असहयोगियों द्वारा की जानेवाली सभाओंसे निपटने के लिए राजद्रोहात्मक सभा अधिनियमोंका सहारा लिया जायेगा, उनके साथ-साथ जो दमन शुरू हुआ, वह असहयोगी समाजपर बमके गोलेकी तरह आया । इसलिए मैं फिर कहता हूँ कि इन विज्ञप्तियों के प्रकाशनसे तथा बंगाल में देशबन्धु चित्तरंजन दास और मौलाना अबुल कलाम आजादकी गिरफ्तारी, संयुक्त प्रान्तमें पण्डित मोतीलाल नेहरू तथा उनके साथियोंकी गिरफ्तारी तथा पंजाब में लाला लाजपतराय तथा उनके दलके लोगोंकी गिरफ्तारीसे यह नितान्त आवश्यक हो गया कि आक्रामक सविनय अवज्ञा तो नहीं बल्कि प्रतिरक्षात्मक सविनय अवज्ञा, जिसे दूसरे शब्दों में अनाक्रामक प्रतिरोध कहते हैं, प्रारम्भ की जाये। सर होर्मंसजी वाडियाको भी यहाँतक कहना पड़ा कि यदि बम्बईकी सरकारने बंगाल, संयुक्त प्रान्त और पंजाबकी सरकारका अनुकरण किया तो मुझे ऐसी विज्ञप्तियों का प्रतिरोध करना ही होगा, अर्थात् अपना नाम स्वयंसेवकों में लिखाना होगा या सरकारके ऐसे आदेशोंके विरुद्ध की जानेवाली सभाओं में सम्मिलित होना होगा । इस तरह, यह स्पष्ट है कि जबतक सरकार अपनी उस नीतिको नहीं बदलती, जिसके कारण भारतके कितने ही भागों में सार्वजनिक सभाएँ, सार्वजनिक संस्थाएँ तथा असहयोगी अखबार बन्द हो गये हैं, तबतक सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलानेका पूरा कारण मौजूद है।