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भेंट : 'बॉम्बे क्रॉनिकल 'के प्रतिनिधिसे

रहेगा, क्योंकि समाचारपत्रोंको संसार-भरकी घटनाओंके बारेमें लिखना पड़ता है । मैं तो समझता हूँ कि ऐसा अज्ञान अपरिहार्य है और हम इसके बारेमें सिवाय इसके कुछ नहीं कर सकते कि उनकी बातोंकी कोई परवाह ही न करें और अपने कामके जरिये कोशिश करते रहें कि अज्ञान न फैलने पाये। मैं इसका एक उदाहरण देता हूँ । मुझे यदि देश-निकाला दिया जायेगा या मौतकी सजा दी जायेगी तो सारे संसारपर यह प्रकट हो जायेगा कि कितना बड़ा अन्याय किया जा रहा है। लेकिन उससे पहले संसारके लोगोंकी आँखें नहीं खुलेंगी। आज इंग्लैंडकी पत्रिकाओंको मेरे कार्यों और मेरे इरादोंपर सन्देह व्यक्त करनेका अधिकार है, लेकिन जब मैं मैदानमें उनके अज्ञानके विरुद्ध आवाज उठाने के लिए यहाँ रहूँगा ही नहीं तब ऐसे प्रचारकोंको मेरे बारेमें अपनी जानकारी ठीक करनेपर विवश होना ही पड़ेगा । मेरा अनुभव तो यही रहा है। ब्रिटिश भारतीयोंकी सामाजिक प्रतिष्ठासे सम्बन्धित प्रश्नकी ओर दक्षिण आफ्रिका और यहाँतक कि भारतके लोगोंका भी ध्यान में तबतक आकर्षित नहीं कर पाया जबतक कि जनताने कष्ट-सहनकी प्रक्रिया शुरू नहीं की, और इसीलिए मैंने यह सीखा है कि जो लोग बहरे बने रहना चाहते हों, उनको अपनी बात सुनानेकी कोशिश करना बेकार है । हमारे कष्ट-सहनसे एक ऐसा वातावरण तैयार होगा जिसमें लोग हमारी बातोंको सुनेंगे।

'क्रॉनिकल'ने हालमें एक सुझाव रखा था कि मिस्र और आयरलैंड - जैसे परतन्त्र और पीड़ित देशोंकी जनताके नेताओंके साथ परस्पर सहानुभूतिके आधारपर मैत्री-सम्बन्ध कायम किये जाने चाहिए जिससे कि असहयोगके प्रचार-आन्दोलन के बलपर पाश्चात्य देशोंके साम्राज्यवादका सम्मिलित रूपसे सामना किया जा सके। इस सुझावके बारेमें आपका क्या खयाल है ?

मैं तो चाहूँगा कि ऐसी मैत्री स्थापित हो, लेकिन वह तो बनते-बनते ही बनेगी । मेरा विनम्र मत यह है कि हम लोग अभी ऐसी उपयोगी मैत्री स्थापित करने की दिशामें काफी आगे नहीं बढ़ पाये हैं। मैं नाम मात्रकी मंत्री में विश्वास नहीं करता । हम जब तैयार हो जायेंगे तो वह अपने-आप स्थापित हो जायेगी ।

क्या आप समझते हैं कि दमन बन्द कराने और राजनीतिक बन्दियोंको रिहाईके प्रस्तावके प्रश्नपर बंगाल सरकारकी हार हो जानेसे सरकार दमन बन्द करनेपर मजबूर हो जायेगी ? या आपको उम्मीद है कि सरकार कौंसिलके आदेशकी अवज्ञा करेगी ? यदि कौंसिलोंकी अवज्ञा की जाती हैं, तो क्या आपकी रायमें एक बार फिर यह सिद्ध नहीं हो जायेगा कि सुधार एक तमाशेसे ज्यादा कुछ नहीं हैं और क्या फिर उसके बाद कौंसिलोंमें एक क्षण भी चिपके रहनेसे सहयोगियोंके आत्म-सम्मानपर सीधी चोट नहीं पड़ेगी ?

यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि कौंसिलमें प्रस्ताव पास हो जानेसे सरकार अपनी दुराग्रहपूर्ण नीतिसे पीछे हट ही जायेगी; हो सकता है कि हट जाये, लेकिन हो सकता है न हटे । यदि असहयोग आन्दोलन न छिड़ा होता तो सरकार इस