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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


इस सन्निपातके शमनके लिए हत्याकाण्ड रचा गया और मूल रोगको छिपानेका प्रयत्न किया गया। अब खिलाफत, पंजाब और स्वराज्य के प्रश्नोंके त्रिविध तापसे भारत दुःखी होकर सन्तप्त हो उठा है । अन्तरज्वालाके तापसे कभी-कभी वह पागलपन भी कर बैठता है। सरकार इस पागलपनको मूल रोग कहकर दमनचक्र चलाती है। इस प्रकार मूल रोगको भुलाना, उसके परिणामोंको रोग बताना और उनके निवारण के लिए दमन नीतिका आश्रय लेना सरकारका एक नियम-सा बन गया है ।

अब हम अनुभवसे यह जान गये हैं कि सरकारको ऐसा मौका ही नहीं दिया जाना चाहिए कि वह लोगोंकी आँखोंमें धूल झोंक सके । असली रोग मिटता है या नहीं, हम चाहे इसकी परवाह न करें, परन्तु अब हम उसे ऐसा तो हरगिज न करने दें जिससे वह मूल रोगसे उत्पन्न उपद्रवोंको ही मूल रोग बताये और लोगोंको दबाने का प्रयत्न करे। ऐसे प्रयत्नोंके बलपर ही सरकारने आजतक अपनी सत्ता जमाकर रखी है । अब हम इस बातको गवारा नहीं कर सकते कि सरकारकी भूलोंसे या स्वेच्छा- चारितासे लोगोंको कष्ट हों । सम्भव है उससे लोग आपेमें न रहें और सरकार उन्हें दबाने के प्रयत्नमें की गई अपनी स्वेच्छाचारिताकी ओरसे दुनियाका ध्यान बँटाने में सफल हो जाये । यदि उसका यह शस्त्र सदाके लिए छीन लिया जाता है तो फिर वह स्वेच्छाचारी नहीं रह सकेगी। जहाँ दमन-नीति समाप्त हुई कि स्वेच्छाचारिताके बदले लोकमतका राज्य आया ।

भाग्य से सरकारने ही दमन नीतिका आश्रय लेकर इस प्रश्नको खड़ा किया है। हमें सरकार की यह चुनौती तो स्वीकार कर ही लेनी चाहिए। सरकार हमें जितना चाहे कष्ट दे, परन्तु हमारी तीन माँगोंके साथ यह एक चौथी माँग हो गई, और फिलहाल यही सर्वोपरि है । हमें ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर देनी चाहिए कि सरकार दमन नीतिका आश्रय ले ही न सके ।

दमन नीति क्या है ? हमारा मुँह बन्द करना, हमारे सभा-सम्मेलनोंको भंग करना, और हमारे अखबारोंको बन्द करना । वह लालाजीको 'वन्देमातरम्' कहने से रोके, भला यह कहीं सहन किया जा सकता है ? वह मजहरुल हक साहबका लैंड' पत्र बन्द कर दे, यह कहीं बरदाश्त किया जा सकता है ? जफरअली खाँका 'जमींदार' बन्द, हबीब खाँका 'सियासत' और राधाकृष्णका 'प्रताप' बन्द । 'इंडिपेंडेंट ' तो बन्द है ही । प्रयागका 'स्वराज्य' भी बन्द है । इन सबका इलाज हमारे पास अवश्य होना चाहिए। यह दमन-नीति कदापि नहीं चलनी चाहिए ।

जो सरकार लोकमत के अधीन होना नहीं चाहती वह हमेशा प्रजाकी आवाजको दबानेका प्रयत्न करती है। जब वह ऐसा नहीं कर पाती तब उसकी हार हो जाती है । इसलिए बारडोलीकी ओरसे जो शान्ति प्रस्ताव किये गये हैं उनमें दमन नीतिका त्याग करनेकी माँगको प्रधानता दी गई है । जब हमारी वाणी मुक्त हो जायेगी, जब हमारे अखबार छपने लगेंगे और जब हम आजादीसे अपने सभा सम्मेलन कर सकेंगे तब हम आजाद जैसे ही होंगे। हमें तब समझना चाहिए कि तीन-चौथाई स्वराज्य तो मिल गया । तब प्रजाकी आवाज ही सरकारको बाध्य करने के लिए पर्याप्त होगी ।