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टिप्पणीयाँ

अपनेको धोखा नहीं दिया कि असहयोगके माध्यमसे ही भारतके पुनरुद्धारकी आशा है ।...किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मैं असहयोगको कोई अल्प प्रभावी वस्तु मानता हूँ, बल्कि मैं अत्यन्त दृढ़तापूर्वक यह कहता हूँ कि हमारे देशवासियों में पूरी तरह अहिंसापर दृढ़ रहकर असहयोग करते रहनेकी सामर्थ्य नहीं है ।... मेरे विचारसे देशका नैतिक स्तर इतना अधिक गिर चुका है कि हमारी वर्तमान पीढ़ी अहिंसक रीतिसे असहयोगका उचित पालन नहीं कर सकती । यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि आप जैसा उत्तरदायी नेता भी इस स्पष्ट और अधम वस्तुस्थितिको समझते हुए भी उस ओरसे अपनी आँखें मूँदे हुए है ।

...इतनी असफलताओंके बाद भी आप क्यों अभीतक स्वराज्य-प्राप्तिकी अवधि महीनोंमें ही गिनते चले जा रहे हैं ? यदि इसका अभिप्राय केवल जनताको सामूहिक रूपसे उत्तेजित करना ही था तो मेरी समझमें यह कदम सोच-विचारकर नहीं उठाया गया । ताजी घटनाओंने यह बात स्पष्ट भी कर दी है । कोरे सब्ज बाग दिखाना जनताको भावनाओंके साथ खिलवाड़ करनेके सिवा और कुछ नहीं है ।

...देशवासियों को प्रशिक्षित किये बिना संघर्ष नहीं छेड़ा जाना चाहिए । हमने निकम्मे सैनिकोंके बलपर ही युद्ध छेड़ दिया है ।...

मैं 'यंग इंडिया' के माध्यमसे आपके विचार जाननेका इच्छुक हूँ ।

पत्र-लेखक बिहारके जाने-माने व्यक्ति हैं । इनकी सचाईमें कोई सन्देह नहीं । इसलिए उनके सुझावके अनुसार मैं उत्तरमें खुली चिट्ठी ही लिख रहा हूँ । यह ठीक है कि असहयोगका विचार सर्वप्रथम खिलाफत के सम्बन्धमें ही आया था किन्तु मैंने अथवा मेरे पूर्व सहयोगियोंने यह कभी नहीं माना था कि ब्रिटिश सरकारके साथ असहयोग करने में किसी भी रूपमें देशहितका कोई बलिदान होगा । बल्कि हमारा तो यही विश्वास था कि यदि हम खिलाफतके सम्बन्धमें सरकारको भारतके मुसलमानोंकी न्यायोचित माँगें मान लेनेको विवश कर सके तो हम पंजाब के मामलेमें भी तथा परिणाम-स्वरूप स्वराज्यके मामलेमें भी उसे अपनी माँग पूरी करने के लिए विवश कर सकेंगे । अहिंसाको बिलकुल प्रारम्भसे ही असहयोगका एक अभिन्न अंग मान लिया गया था इसलिए उसके उल्लंघनका अर्थ ही अपने आप असहयोगकी असफलता होता । सच पूछिए तो हालकी घटनाओंने अहिंसाकी प्रगतिके प्रचुर प्रमाण ही प्रस्तुत किये हैं । मैं लगभग निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि उनसे यही स्पष्ट हुआ है कि बम्बईका सही रास्तेसे भटकना नियमका अपवाद है और वह किसी भी प्रकारसे देशकी सामान्य परिस्थिति का परिचायक नहीं है । एक वर्ष पूर्व यह बात असम्भव होती कि सरकार देशके विभिन्न भागोंसे इतने सारे मूर्धन्य नेताओंको गिरफ्तार कर लेती और जनता पूर्णत: आत्मनियन्त्रित बनी रहती । यह मानना एक भूल होगी कि जनता मशीनगनोंके डरसे शान्त है । इसमें ऐसे भयका भाग हो तो सकता है किन्तु भयभीत व्यक्ति भी यह तो देख ही सकता है कि आज भारतमें यदि हजारों नहीं तो सैकड़ों व्यक्ति तो ऐसे हैं जिन्हें