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एक ईसाई धर्म प्रचारकके भ्रमपूर्ण निष्कर्ष

हैं। यह मामला तो भारतके बिलकुल बाहरका है । आप देशको स्वराज्य-प्राप्ति- की दिशा में आगे बढ़ानेका दावा करते हैं, किन्तु स्वराज्य कैसा हो, इस सम्बन्धमें आपने अभी तक कोई रचनात्मक विचार नहीं दिया। केवल आपने खद्दर और चरखके बचकाने और अव्यवहार्य विचार दिये हैं। इससे तो यही प्रकट होता है कि इस विशाल राष्ट्रके लिए समग्र रूपसे कौन-सी चीज हितकर हो सकती है, इस सम्बन्धमें आपकी धारणा कितनी बचकानी है । आप स्वराज्य किस तरह चलायेंगे ? क्या आप किसी प्रकार स्वयंको या किसी अन्य व्यक्तिको स्वराज्यका दायित्व सँभालनेके लिए तैयार कर रहे हैं ? ऐसे कार्योंकी दिशा में आपने क्या किया है जो उसकी व्यावहारिक व्यवस्थाके सिलसिले में करने पड़ेंगे ? आप जिस चीजकी बात करते हैं उसका अन्त क्या होगा, इसका कोई स्पष्ट दर्शन नहीं होता । आपकी सारी बातें खोखली, अनिश्चित और अस्पष्ट हैं ।

क्या आपने इतिहासका अध्ययन किया है और इस ओर ध्यान दिया है कि राष्ट्र कैसे प्रगति करते हैं ? क्या आपने कभी इस बातपर गौर किया है कि प्रगति क्रान्ति और विनाशसे नहीं होती, बल्कि क्रमिक विकाससे होती है ? क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि प्रकृतिके माध्यम से ईश्वर कैसे अपना कार्य करता है ? पौधों और पशुओंमें जीवन धीरे-धीरे प्रगति करता है, और ऐसा क्रान्तिकी रीतिसे नहीं बल्कि विकासकी रीतिसे होता है । क्या आप कभी आकाश और तारोंकी गतिको ध्यानपूर्वक देखते हैं ? जो तारे तेजीसे चलते हुए दिखाई पड़ते हैं, वे अपने स्थानसे गिर रहे होते हैं । तेजीसे चलना उनके विनाश और अवसानको प्रक्रिया है । सूर्य और उनके अपने-अपने जगत्, जो युगोंसे चले आ रहे हैं, चलते नजर नहीं आते। क्या आपने ऊषाका आगमन देखा है ? क्या वह किसी दुकान के दरवाजेके समान तुरन्त खुल जाती है ? पहाड़पर चढ़नेवाले को ऊपर पहुँचनेके लिए धीरे-धीरे एकके बाद दूसरा कठिन कदम रखकर बढ़ना पड़ता है। लेकिन तेजीसे उतरनेके लिए कगारके छोरपर एक कदम-भर आगे बढ़ाने की जरूरत होती है और कुछ ही क्षणोंमें मनुष्य नीचे आ जाता है । सोचिए, श्री गांधी, सोचिए इन बातोंपर !

मेरा विश्वास है कि जिस प्रकार बहुत-से अन्य लोग भारतका भला चाहते हैं वैसे ही आप भी चाहते हैं, किन्तु आपके वर्तमान तरीके आपको गलत मार्ग- पर ले जाते हैं । यदि भारत स्वराज्यके योग्य बनना चाहता है तो उसे यह योग्यता सजीव वस्तुकी भाँति धीरे-धीरे विकास पाकर प्राप्त करनी होगी। उसे ठोक-पीटकर तैयार नहीं किया जा सकता। उसके विकासकी प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। ब्रिटिश सरकार और जनता इसमें सहायता दे रही है; वे आगे भी इस नेक कामको करती रहेगी और जब उनके कन्धोंसे यह भार उतर जायेगा और उनकी जिम्मेवारी समाप्त हो जायेगी तब उन्हें बड़ी प्रसन्नता होगी।