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दिया गया है । और यह सब सिर्फ इसलिए किया गया है कि इस गरीब देशका जिसके बारेमें मेरी इच्छा ऐसा माननेकी होती है कि वह किसी समय मानव-शक्ति तथा धन-धान्यसे भरा-पूरा था - शोषण करने और इसकी सम्पत्ति लूटकर अपना घर भरनेपर कटिबद्ध एक अल्पसंख्यक समुदायके व्यापारिक हितोंके लिए बलात् छीनी गई सत्ताको कायम रखा जाये ।

बनारस में बर्बरता

यहाँ मैं एक तारका सार दे रहा हूँ, जो बनारससे भेजा जानेवाला था, पर जिसे तारघरने आपत्तिजनक बताकर लौटा दिया:

अधिकारी लोगों को पीटते हैं और आधी रातको जाड़में उन्हें नंगा घर भेज देते हैं। स्वयंसेवक लड़कोंको गन्दी गालियाँ दी जाती हैं।और उनके साथ गन्दे मजाक किये जाते हैं। देशभक्तों को सम्मेलन या समझौतेकी बात करनेसे पहले इस दिशा में राहत दिलानी चाहिए।

जब बराबर इस प्रकारका अमानुषिक व्यवहार किया जा रहा हो तब सम्मेलनों और समझौतोंकी बात सोचने के लिए 'देशभक्तों' को जो कड़ी फटकार बताई गई है, पाठकोंका ध्यान उसपर जरूर जायेगा । तारमें जो तथ्य संक्षेपमें रखे गये हैं, उनका विस्तृत विवरण उसके साथ के पत्र में दिया गया है । परन्तु मैं अभी उन्हें यहाँ देनेके लिए स्वतन्त्र नहीं हूँ । इस तारके प्रेषक प्रोफेसर कृपलानी खुद जेलमें ऐसे कदम उठा रहे हैं जिनसे तार में वर्णित अपमानजनक अमानुषिकताओंकी समाप्ति सम्भव है ।

जो लोग जेलसे बाहर हैं, उन्हें क्या करना चाहिए यह बिलकुल स्पष्ट है । क्षुब्ध और उत्तेजित होनेसे हमें कोई लाभ नहीं होगा । हमें समस्याकी गम्भीरताको समझना चाहिए। गन्दगी जितनी ज्यादा हो, आत्मशुद्धि और आत्मत्यागकी आवश्यकता उतनी ही अधिक होती है। पुलिसको बुरा-भला कहने से हमें कोई लाभ नहीं हो सकता। पुलिसवाले परिस्थितियोंकी उपज हैं। उनके प्रशिक्षणसे उनका सहज स्वभाव सुधरा नहीं हैं, वह शायद बिगड़ा ही है।

पहली ही बार उनका वास्ता अपने ऐसे देशवासियोंसे पड़ रहा है जो सुसंस्कृत हैं और उच्च उद्देश्य रखते हैं । हमें यह आशा नहीं करनी चाहिए कि पुलिसमें एकाएक परिवर्तन आ जायेगा । यदि हम उनके साथ धैर्य और नम्रताका व्यवहार करेंगे तो वे भी शिष्ट मनुष्य बन जायेंगे और हमारे दुःख-दर्द को समझने लगेंगे। जिस दिन हमारे सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति जेलकी दीवारोंके अन्दर पहुँचे, मेरे लिए तो स्वराज्य उसी दिन आरम्भ हो गया। तबसे निरन्तर शक्तिकी अभिवृद्धि और सुधारका क्रम चल रहा है। सुधार झगड़ेके निबटारेके बाद शुरू नहीं होना है, बल्कि निबटारा वास्तविक और उत्तरोत्तर बढ़ते हुए सुधारका फल होगा। और पुलिसकी क्रूरताके लिए क्या हम स्वयं भी दोषी नहीं हैं ? क्या हम बहुत कालतक उनकी उपेक्षा नहीं करते रहे हैं, बहुत कालतक उनसे डरते नहीं रहे हैं, उनका बुरा नहीं चाहते रहे हैं और यह नहीं मानते रहे हैं कि अब उनका उद्धार सम्भव नहीं है ? यदि हमारी यही मनोवृत्ति रही तो