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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किये गये प्रस्ताव में जो शर्तें[१]रखी थीं, उनका पालन करनेकी योग्यता बारडोलीने सिद्ध कर दी है, इसलिए वहाँ सामूहिक सविनय अवज्ञा प्रारम्भ की जाये । यह निर्णय श्री विट्ठलभाई पटेलकी अध्यक्षता में हुए एक सम्मेलनमें किया गया । किन्तु इस निर्णय के लिए मुख्य रूपसे कदाचित् मैं ही जिम्मेदार हूँ । इसलिए परमश्रेष्ठ तथा जनताके सामने यह स्पष्ट कर देना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि किन परिस्थितियोंमें यह निर्णय किया गया है ।

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीके इस प्रस्तावके अधीन ऐसा सोचा गया था कि बारडोलीको सविनय अवज्ञाकी प्रथम इकाई बनाकर सरकारके खिलाफ राष्ट्रीय विद्रोहका शंख फूंका जाये - - यह विद्रोह इसलिए कि खिलाफत, पंजाब तथा स्वराज्यके सम्बन्ध में सरकारका रवैया अपराधपूर्ण रहा है और वह इन सवालोंपर भारतीयोंके संकल्पकी निरन्तर अवहेलना करती रही है ।

किन्तु उसके बाद ही १७ नवम्बरको बम्बईमें वे दुर्भाग्यपूर्ण और खेदजनक दंगे हो गये, जिनका परिणाम यह हुआ कि बारडोली जो कदम उठानेकी सोच रहा था, उसे उस समय रोक रखना पड़ा ।

इस बीच भारत सरकारकी सहमति से बंगाल, असम, संयुक्त प्रान्त, पंजाब, दिल्ली तथा एक तरहसे बिहार और उड़ीसा में भी भयंकर दमन-कार्य किये गये हैं । मैं जानता हूँ कि इन प्रान्तोंके सत्ताधारियोंकी कार्रवाइयोंको “दमन " की संज्ञा देने पर आपने आपत्ति की है । लेकिन मैं मानता हूँ कि परिस्थिति- विशेषसे निबटने के लिए जितनी कड़ी कार्रवाई अपेक्षित हो, उससे अधिक कार्रवाई करना, बेशक, दमन ही है । लोगोंकी धन-सम्पत्ति लूटना, निर्दोषों और निरीहोंको मारना पीटना, जेलोंमें कैदियोंके साथ क्रूर व्यवहार करना, उन्हें कोड़े लगाना इस सबको वैध और सभ्य कार्रवाई तो नहीं कहा जा सकता, और न किसी भी तरह इसे आवश्यक ही माना जा सकता है। माना कि हड़तालों और धरना देने के सिलसिलेमें असहयोगियों या उनके समर्थकोंने किसी हदतक डराने-धमकाने के तरीकेका सहारा लिया; किन्तु क्या इतनी-सी बातपर एक असाधारण कानूनका अनुचित प्रयोग करके स्वयंसेवकोंके शान्तिपूर्ण कार्यों और शान्तिपूर्ण सभाओं पर रोक लगा देना उचित है ? उस असाधारण कानूनकी रचना तो ऐसी प्रवृत्तियोंका सामना करनेके लिए की गई थी जो अपने उद्देश्यकी दृष्टिसे तथा वस्तुतः भी स्पष्ट रूपसे हिंसात्मक हों। और फिर निर्दोषों तथा निरीहोंके खिलाफ साधारण कानूनके अधीन जो कार्रवाई की गई है, उसे भी दमनके अलावा और किसी नामसे नहीं पुकारा जा सकता। हममें से बहुत-से लोगोंको ऐसा लगा है कि इन मामलोंमें साधारण कानूनका अवैध उपयोग किया गया है। इसी तरह जिस कानूनको रद करने का वादा किया जा चुका है, उसके अधीन प्रशासनिक तौरपर अखबारोंकी स्वतन्त्रतापर हाथ डालना भी दमनके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

आज हमारी वाणीकी स्वतन्त्रता, सभा-संगठनकी स्वतन्त्रता और अखबारोंकी स्वतन्त्रताका गला घोटा जा रहा है; इसलिए अभी देशके सामने सबसे आवश्यक

  1. देखिए खण्ड २१, पृष्ठ ४३२-३५ ।