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आन्ध्र देशमैं जागृति

 

सरकार जरूरी तौरपर जो कदम उठा सकती है उसके बारेमें में इतना ही कहकर बस करता हूँ । सच तो यह है कि उसमें जो घबराहट छाई हुई है, उससे उसके मनका माप प्रकट होता है। कर वसूल करने के लिए उसे अपनी लोकप्रियतापर भरोसा नहीं है। इसके लिए उसे संगीनों तथा जोर-जुल्मका आश्रय लेना पड़ रहा है। वह लोकप्रिय नेताओंको गिरफ्तार कर रही है और लोगोंको हिंसापर उतर आने के लिए उत्तेजित कर रही है, जिससे उसे अपनी इन “खूनी” कार्रवाइयोंको उचित ठहराने का मौका मिले।

और इसमें आन्ध्रकी परीक्षा है। उन्होंने अभीतक तो अपनी बहादुरी और बलिदान-भावनाका परिचय दिया है। उनके चुनिन्दा नेता जेल चले गये हैं। उनके मवेशी भी उनसे छीन लिये गये हैं, किन्तु तब भी वे शान्त रहे। पर सबसे बुरा दृश्य देखना अभी बाकी है। उनसे यह आशा की जाती है कि जब सरकारी सैनिक उनपर गोलियोंकी बौछार करेंगे तब वे पीठ नहीं दिखायेंगे, बल्कि खुशी-खुशी सीना खोलकर गोलियोंकी मार खाते हुए भी अपने मनमें प्रतिहिंसा अथवा रोषकी भावना नहीं आने देंगे। यदि सरकारी कर्मचारी उनसे उनके बर्तन बासन, उनका माल असबाब छीन ले जायें तो उन्हें ले जाने दें। उस समय वे द्रौपदी अथवा प्रह्लादकी तरह ईश्वरसे प्रार्थना करते हुए उसमें अपनी आस्थाका परिचय देते रहें।

कर न देना एक विशेष अधिकारकी बात है। उसका उद्देश्य कर न देनेवाले प्रतिरोधियोंकी समृद्धि नहीं है। उसका उद्देश्य तो स्वेच्छ्या गरीबीको स्वीकार करके राष्ट्रको समृद्ध बनाना है। और इस विशेष अधिकारके प्रयोगके पात्र तो वे तभी हो सकते हैं जब वे अपनेको पवित्र बनायें, विदेशी कपड़ा छोड़कर हाथसे कती-बुनी खादी पहनें और यदि हिन्दू हों तो अस्पृश्यताके कलंकको मिटाकर अस्पृश्योंके साथ अपने विशिष्ट भाइयोंकी तरह व्यवहार करें। उन्हें अपने इन भाइयोंका स्पर्श अनिच्छापूर्वक नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें प्रेमसे गले लगाना चाहिए और उनकी सेवा करनी चाहिए। हमपर किये गये अन्यायोंके लिए जैसे हम सरकारसे पश्चात्ताप करनेकी अपेक्षा रखते हैं, उसी प्रकार हम जब उनका स्पर्श करें तो अपने पहले के पापोंके लिए मनमें सच्चे पश्चात्तापका भाव भरकर ही करें। जो अवश्यम्भावी है, उसे अनिच्छापूर्वक स्वीकार करनेसे ईश्वर प्रसन्न नहीं होता। अस्पृश्योंके प्रति हमारा व्यवहार पूर्ण हृदय-परिवर्तनका द्योतक होना चाहिए। हमें अपने स्कूलोंमें उनके बच्चोंको स्थान देना चाहिए, सार्वजनिक स्थानोंमें भी उन्हें निर्बाध प्रवेश करने देना चाहिए। उनकी रुग्णावस्था में अपने भाईकी तरह हमें उनकी सेवा करनी चाहिए। हमें अपनेको उनका आश्रयदाता―अन्नदाता नहीं समझना चाहिए। हमें अपने धर्म-ग्रन्थोंकी बातोंको इस तरह तोड़- मरोड़कर नहीं पेश करना चाहिए जिससे वे उनके खिलाफ पड़ें। हमें अपने धर्म-ग्रन्थोंसे उन चीजोंको निकाल देना चाहिए जिनका उद्गम शंकास्पद हो और जिनका ऐसा अर्थ लगाया जा सकता हो जो अस्पृश्योंके मानवीय अधिकारोंके खिलाफ हो। ऐसी प्रथाओंको भी प्रसन्नतापूर्वक उठा देना चाहिए जो विवेक, न्याय और मानव-हृदयके स्वाभाविक धर्म के खिलाफ हों। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए कि अज्ञान और अन्ध-विश्वासके वशीभूत होकर किसी कुप्रथासे चिपटे रहें और उसका त्याग तभी करें