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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

इस कामको करने के लिए हथियारोंकी जरूरत नहीं, हिम्मतकी जरूरत है। जागते हुए लोगों को लुटनेका डर कम होता है। किन्तु सब लोग दिन-रात नहीं जाग सकते; इस कारण कुछ लोगोंको रातमें पहरा देनेके लिए तैयार होना चाहिए। शहरोंकी सुरक्षाके लिए प्रकाश और पहरेकी व्यवस्था पर्याप्त है।

इसके अतिरिक्त हमें लोगोंको सुधारनेके उपाय भी करने चाहिए। हम चोरोंका पता लगाकर उन्हें सजा देने के बजाय समझायें। चोरसे एक बार खुलकर बातचीत कर लेने के बाद वह चोरी करनेकी हिम्मत नहीं करेगा। उसे बदलना तो अवश्य ही मुश्किल गुजरेगा, जिसने चोरीको अपना धन्धा ही बना लिया है। किन्तु सार्वजनिक शुद्धिका असर तो उसपर भी होगा ही। इस शुद्धिके कार्यको आगे बढ़ाना साधुओंका काम है। यदि साधुओंमें सच्ची साधुता आ जाये तो वे इस कामको अवश्य ही पूरा महत्त्व देंगे। जो जातियाँ चोरी और लूटपाटको अपना धन्धा मानती हैं, साधुओंको उनमें जाकर उनकी यह आदत छुड़ानी चाहिए और उन्हें दूसरे धन्धोंमें डालना चाहिए। मतलब यह कि हमें उनको अपना शत्रु समझने के बजाय अपने भाईके समान मानकर उनकी सेवा करनी चाहिए। चोरीकी आदत भी एक तरहका रोग है। किन्तु हमने इस रोगको मानसिक रोग होने के कारण अधिक कठिन समझ लिया है और उसके निदान और चिकित्साका काम अपने हाथमें ही नहीं लिया। जिस मनुष्यको अपच हो जाता है, ज्वर आता है और वमन होती है, हम उसकी दवा-दारू करते हैं। जो चोरी करता है, झूठ बोलता है और धोखा देता है हमें उसको भी रोगी मानकर उसकी दवा-दारू क्यों न करनी चाहिए? हम उसे जेलमें भेजने के बजाय उसका कोई दूसरा इलाज क्यों न ढूँढ़ें? शारीरिक रोग होनेपर हम किसी व्यक्तिको दण्ड क्यों नहीं देते? मेरा विश्वास तो यह है कि यदि हैं तो दोनों ही दण्डके पात्र हैं, नहीं तो फिर दोनों ही दयाके योग्य हैं।

किन्तु हमने तो आलस्य के वशीभूत होकर विचार करना भी बन्द कर दिया है। इस कारण हमने ‘एकको गुड़की डली, दूसरेको खली’ देनेके सिद्धान्तको सनातन मान लिया है। हम जब अहिंसात्मक असहयोगसे भारतमें स्वराज्यकी स्थापना करने निकले हैं तब हमें चोरी आदि भयोंकी चिकित्सा भी अहिंसाके मार्गसे ही खोजनी होगी और यह अवश्य ही सम्भव है।

सरकारसे हमें यह शिक्षा तो मिलती ही है कि वह जहाँ दण्ड देती है वहाँ मुक्ति-सेना-जैसी संस्थाओंकी थोड़ी-बहुत सहायता लूट और ऐसे ही अन्य कुकर्मों में फँसी जातियोंका सुधार करनेमें लेती है। हमारे पास तो सरकारकी अपेक्षा ऐसी जातियोंको सुधारनेके अधिक सशक्त साधन हैं, क्योंकि इस कामके लिए हमारे पास साधुओं और फकीरोंका वर्ग मौजूद है। यदि इस वर्ग में सच्ची साधुता अथवा फकीरी आ जाये तो उनसे इस कार्य में पर्याप्त सहायता मिल सकती है। कोई यह न सोचे कि इसके लिए किसी विशेष संगठनकी आवश्यकता है। लोगोंको हर गाँव या शहरमें अथवा जहाँ राष्ट्रीय जागृति हुई हो वहाँ दूसरोंकी बाट जोहे बिना अपनी रक्षाका और अपने सुधारका प्रबन्ध कर लेना चाहिए। यदि दो-चार जगहों में भी यह काम ठीक तरह से हो सके तो अन्य गाँवों या शहरोंमें इसका चलन अपने-आप आरम्भ हो जायेगा।