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टिप्पणियाँ

केवल अबतक राजनीतिक जागृति नहीं थी; लोग अबतक इन कार्यों में दिलचस्पी नहीं लेते थे। उनमें सभी जातियों के कामकाजी लोग भाग नहीं लेते थे। जब सभी जातियोंके लोग उनमें दिलचस्पी लेने लगेंगे तब निश्चय ही हाथ हिलाये बिना स्वराज्य मिल जायेगा। जब कम लोग अधिक लोगोंपर अपनी सत्ता चलाना चाहते हैं तभी अत्याचार होता है, यह सामान्य नियम है। कम लोगोंपर अधिक लोगोंको ज्यादती नहीं करनी पड़ती, अथवा यह कहना चाहिए कि बहुमतमें बहुत ही कम ज्यादती होती है, सत्ताकी कमसे-कम शक्ति पर्याप्त हो जाती है। एक भारत ही ऐसा देश है जिसमें बहुसंख्यक लोग चेतना आ जानेपर भी अपने-आपको अपंग मानते हैं।

ऐसा कौन-सा काम है जिसे नगरपालिकाएँ नहीं कर सकतीं? क्या हम अपने नगरोंमें प्रकाशकी व्यवस्था, मार्गोंकी देखरेख और पाखानोंकी सफाईका इन्तजाम नहीं कर सकते? खादीनगरमें पाखानोंकी सफाई किसने की, उसका निर्माण किसने किया, उसमें सड़कें किसने बनाईं, वहाँ खाने-पीनेका इन्तजाम किसने किया और रोगियोंकी चिकित्सा और रातको कुटियोंपर पहरा देने की व्यवस्था किसने की? इतनी गाड़ियोंके जाने और आनेका नियन्त्रण किसने किया? आप समय, काम और लोगोंकी संख्याका हिसाब लगायेंगे तो जो आँकड़े मिलेंगे वे स्वराज्यके आँकड़े होंगे। हम स्वयं ही यह मान बैठे हैं कि हममें शक्ति नहीं है। हमें इसका भान कोई दूसरा मनुष्य कैसे करा सकता है?

मुझे आशा है कि सरकारने तीनों नगरपालिकाओंसे जो व्यर्थ झगड़ा चला रखा है उसमें इन तीनों शहरोंके लोग, नगरपालिकाओंके काममें पूरी दिलचस्पी लेकर और अपने प्रतिनिधियोंको पूर्ण प्रोत्साहन देकर, विजयी होंगे और इस प्रकार अपने शहरोंको स्वतन्त्र कर लेंगे।

हमारी रक्षा

हम जब सरकारकी सत्ताके संरक्षणसे मुक्त होना चाहते हैं, तब हमें यह विचार करना ही पड़ता है कि हम अपनी रक्षाका प्रश्न कैसे हल करेंगे? अबतक तो हमारी रक्षा सरकारकी पुलिस, फौज, तोपों और तलवारोंने की है। सरकारके चले जानेपर हमारी रक्षा कौन करेगा? तब हमें चोरों और लुटेरोंसे कौन बचायेगा? जबतक ऐसे प्रश्न पूछे जाते रहेंगे तबतक हम न तो स्वराज्य लेनेके लायक हैं और न मर्द कहे जाने के लायक।

हम तत्काल अपने शहरों और गाँवोंकी रक्षा करने में समर्थ क्यों नहीं हो सकते? भारतके साढ़े सात लाख गाँवोंके लोग तो ऐसे प्रश्न नहीं पूछते। सरकार उनकी रक्षा नहीं करती। गाँव अपनी रक्षा अपने-आप ही कर लेते हैं और जो गाँव अपनी रक्षा आप नहीं कर पाते वे तो आज भी लुटते हैं। देशके भीतरी उपद्रवोंसे तो गाँवोंकी रक्षा सरकारने भी नहीं की है और कर भी नहीं सकती। इस प्रकारकी रक्षाके लिए तो गाँवोंको स्वयं तैयार रहना अथवा होना चाहिए।

प्रत्येक गाँव अथवा शहरमें से ऐसे स्वयंसेवक निकलने चाहिए जिनका काम लोगोंकी रक्षा करना हो और जो रातको पहरा दें। हमें कोई इस कार्यसे भी नहीं रोक सकता। इस कामको करने के लिए लोगोंको स्वयं तैयार रहना चाहिए।