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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

फिर इस प्रतिज्ञामें केवल सिद्धान्त ही तो ग्रथित किये गये हैं। कोई सिद्धान्तों में परिवर्तन कर ही कैसे सकता है? दिल्लीकी बैठक में शर्तोंमें छूट देनेकी जो गुंजाइश रखी गई है वह तो सिर्फ उसी जिलेका हाथ-बुना कपड़ा पहनने की शर्त से सम्बन्ध रखती है। यदि पंजाब के किसी जिलेमें ऊनी कपड़ा न बन सके तो उसके लिए कार्य-समिति दूसरे जिले या प्रान्तसे हाथकी कती ऊनका हाथ बुना कपड़ा लानेकी इजाजत दे सकती है। परन्तु क्या कोई अस्पृश्यता या शान्तिकी रक्षा अथवा हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई आदिकी एकताके विषयमें भी छूट दे सकता है? जो सचमुच स्वयंसेवकों- में अपना नाम लिखाना चाहते हैं और जिनमें जेल जानेका उत्साह है, वे तमाम शर्तोंका पालन आसानीसे कर सकते हैं।

इसलिए यदि गुजरातमें थोड़ेसे ही लोग स्वयं सेवकोंमें नाम लिखायें तो मैं यही समक्षूंगा कि या तो इससे अधिक लोग अपना नाम लिखाना ही नहीं चाहते या जिस तरह यह संघर्ष चल रहा है उस तरह चलाना बहुतोंको पसन्द नहीं है।

परन्तु प्रतिज्ञाकी शर्तोंपर आस्था न रखते हुए नाम लिखानेकी अपेक्षा लोगोंका स्वयंसेवकोंम नाम न लिखाना अधिक अच्छा है। कम लोग ही नाम लिखायें, परन्तु वे अपनी प्रतिज्ञाका पूरा-पूरा पालन करें। ऐसे थोड़े किन्तु सच्चे स्वयंसेवकोंसे तो बहुत हो जानेकी सम्भावना है। परन्तु जैसे-तैसे बनाये गये बहुतसे स्वयंसेवकोंसे भी हमें लाभ होनेवाला नहीं है। कारीगरका काम यह है कि वह मकानकी चिनाईके समय नाप-जोख करे और देखे कि मकान जैसा सोचा है वैसा बन रहा है या नहीं।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २९-१-१९२२
 

११४. सरकारकी सभ्यता

शत्रुके भी गुणों को देखने में लाभ है; यह नीतियुक्त तो है ही। पर जो प्रमादवश यह मानता है कि शत्रुमें कोई भी गुण नहीं हो सकता उसे मुँहकी खानी पड़ती है।

सरकार जानती है कि असली लड़ाई बारडोलीमें ही हो सकती है। इसलिए वहाँके कलक्टरने लोगोंके नाम एक ‘स्पष्टीकरण’ प्रकाशित किया है। वह ध्यान देने योग्य है। इसे ‘स्पष्टीकरण’ का शिष्ट नाम देने के बदले सरकार ‘जाहिर खबर’ भी कह सकती थी। किन्तु ऐसा करने के बजाय सरकारने जनताके सम्मुख ‘स्पष्टीकरण’ किया है। इस ‘स्पष्टीकरण’ में सरकारने जिस विनयसे काम लिया है उससे अधिक विनय तो हम अपनी प्रान्तीय समितिके पत्रोंमें प्रकट नहीं करते। दलीलें भी वैसी ही दी गई ह जैसी असहयोगी देते हैं।

इसके नीचे हस्ताक्षर ‘एच० बी० शिवदासानी’ के हैं। वे तो हममें से ही एक हैं। यदि उन्होंने ऐसा विनययुक्त स्पष्टीकरण अपने अधिकारसे ही निकाला हो तो इसमें कोई अधिक आश्चर्य की बात नहीं है। यदि भारतीय अधिकारी सरकारी नौकर होते हुए भी विनययुक्त व्यवहार करें तो यह कोई असाधारण बात नहीं है।