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स्वयंसेवकोंकी भरती

माइकेल और जनरल डायरकी भूतकालीन सेवाओंको भुलाना नहीं चाहती; किन्तु हम अपने मनमें उनकी पिछली सेवाओंका कोई मूल्य नहीं समझते और सन् १९१९में उन्होंने भारतके प्रति जो अभक्ति दिखाई वह हमको आज भी बहुत सालती है।

ऐसी ही बात स्वराज्यके सम्बन्धमें भी है। हमें तो स्वराज्य आज ही चाहिए, जब कि सरकार कहती है कि वह हमें लायक हो जानेपर स्वराज्य देगी।

इस प्रकार हर मामले में हम दोनोंमें बहुत बड़ा अन्तर है। यह अन्तर तबतक न मिटेगा जबतक हमारी परीक्षा पूरी-पूरी नहीं हो जाती। और जबतक दोनोंके दृष्टिबिन्दु एक नहीं हो जाते तबतक समझौतेके लिए कोई सम्मेलन होता है तो वह भले ही हो; किन्तु उसका परिणाम अच्छा होने की कोई आशा नहीं रखनी चाहिए।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २९-१-१९२२
 

११३. स्वयंसेवकोंकी भरती

स्वयंसेवकोंकी भरतीका काम जितने जोरसे चलना चाहिए उतने जोरसे चलता हुआ नहीं दिखाई देता। जैसे राष्ट्रीय सप्ताहमें कांग्रेसके टिकट घरपर भीड़ लग गई थी, स्वयंसेवक बननेके उम्मीदवारोंका वैसा जमघट प्रान्तीय कांग्रेस कमेटीके कार्यालय के सामने नहीं दिखाई देता। विषय-समितिको बैठकमें प्रवेशके लिए दर्शकोंके टिकटोंकी माँग इतनी अधिक थी कि अध्यक्ष और मन्त्री दोनों पागल-जैसे हो गये थे। वे किसको हाँ कहें और किसको ना, यह प्रश्न था। स्वयंसेवकोंकी भरती भी ऐसे ही जोरसे क्यों नहीं होती?

कुछ लोगोंका कहना है कि खादी पहननेकी शर्त उड़ा दी जाये तो भरती तेजीसे हो सकती है। मैं इस बातको नहीं मानता। जो दिलसे स्वयंसेवक बनना चाहता है वह खादीपर आपत्ति नहीं कर सकता। स्वयंसेवक तो मरनेकी प्रतिज्ञा करना चाहता है। फिर यह नहीं हो सकता कि वह खादी पहनने में आगा-पीछा करे या पाँच-दस रुपयेकी खादी खरीदनी पड़े तो न खरीदे? स्वयंसेवक तो मनुष्य इतने रुपये उधार लेकर भी बन सकता है। क्या कितने ही लोग अपने व्यसनोंको पूरा करनेके लिए कर्ज नहीं लेते? फिर स्वयंसेवक बनना भी हमें एक व्यसन ही क्यों नहीं लगता?

कुछ लोग कहते हैं कि अस्पृश्यताकी प्रतिज्ञा हटा लें, फिर देखें कि कितने स्वयं-सेवक भरती होते हैं। किन्तु यह बात भी ठीक नहीं है। मैं समझता हूँ कि इसमें न तो खर्चकी बात है और न असुविधाकी। मुख्य बात है हृदयको बदलनेकी। हम अछूतोंको छोड़कर स्वराज्य रूपी स्वर्ग में जा ही नहीं सकते। परन्तु ऐसी आपत्तियाँ करना तो ‘नाच न जाने आँगन टेढ़ा’ की कहावतको चरितार्थ करता है।

फिर शर्तोमें छूट देना न तो मेरे अधिकारमें है और न कार्य-समितिके अधिकारमें। यह तो राष्ट्रीय कांग्रेसका प्रस्ताव है और राष्ट्रीय कांग्रेस ही उसमें परिवर्तन कर सकती है। और परिवर्तन करानेकी बातको मैं स्वयं तो कायरता ही मानता हूँ।

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