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१११. भाषण: सत्याग्रह आश्रम, अहमदाबाद में[१]

२६ जनवरी, १९२२

मैं सविनय अवज्ञा और करोंकी अदायगी बन्द करने के कार्यक्रमको सफलतापूर्वक चलाने की तैयारीके लिए आज बारडोली जा रहा हूँ। मैं यहाँ एक हफ्तेमें या हो सकता है एक महीने या साल-भरमें लौटूंगा, या शायद कभी भी न लौटूं। पर एक बात निश्चित है: हम या तो भारतके लिए स्वराज्य हासिल कर लेंगे या फिर संघर्ष में काम आ जायेंगे। भारत धीरे-धीरे एक पवित्र बल्कि कहिए कि एक परमशुद्ध देश बनता जा रहा है। जब सत्य हमारे पक्षमें है तो फिर क्या पराजय कभी हो सकती है? इसमें तो तत्काल मुक्ति या मोक्ष मिलता है। सत्यके लिए प्रसन्नताके साथ अपना जीवन होम कीजिए। यदि कोई मुझसे पूछे कि ब्रह्म कहाँ है, कसा है, तो मैं उसके प्रश्नको बदल कर पूछूंगा, सत्य कहाँ है, कैसा है? सत्य ही ब्रह्म है। हर व्यक्तिको बड़े सवेरे उठकर कमसे कम एक मिनट ईश्वरसे प्रार्थना करनी चाहिए कि “हे सर्वशक्तिमान् प्रभु! मुझे अपने धर्मके लिए प्राणोत्सर्ग करने, समूचे संसारके लिए प्राणोत्सर्ग करने की शक्ति प्रदान कर।” मृत्युमें ही मुक्ति नहीं है, मुक्ति उसी मरणमें है जिसका स्वेच्छासे सहर्ष वरण किया जाये। भगवान् श्रीकृष्णने ‘गीता’ के दूसरे अध्यायमें स्थित प्रज्ञके बारेमें अर्जुनसे क्या कहा था? उसे याद कीजिए और उसके अनुसार जीनेकी कोशिश कीजिए। जीनेका सुख और आनन्द तभी है जब ईश्वर हमें अनेकानेक बाधाओं और अत्याचारोंको सहन करते हुए अपनी इच्छासे प्रसन्नता-पूर्वक मृत्युका वरण करनेकी शक्ति दे। ईश्वरने मुझे अपने देश और अपने धर्मके लिए प्राणोत्सर्ग करनेकी शक्ति दी है।

आत्मत्यागमें एक प्रकारका सन्तोष होता है। पिछली रात मैं प्रोफेसर वास्वाणी[२]द्वारा रचित एक पुस्तक पढ़ रहा था। उन्होंने आत्मत्यागके बारेमें लिखते हुए राणा प्रतापसिंहका उदाहरण पेश किया है। उन्होंने बड़े सुन्दर विचार व्यक्त किये हैं। प्रतापका आत्मत्याग महान् था। चित्तौड़के पतनके बाद जब उन्होंने देखा कि उसपर फिरसे कब्जा करना सम्भव नहीं, तो अपने राजभक्त सैनिकोंसे उन्होंने क्या वचन लिया था? वह आत्मत्यागपूर्ण वचन यह था: “जबतक चित्तौड़को स्वाधीनता नहीं मिलती, तबतक हम कोई ऐशो-आराम नहीं करेंगे, हम धरती माताकी गोदमें सोयेंगे, कन्द-मूल खाकर बसर करेंगे, हम अपने सभी सांसारिक सुखोंका त्याग कर देंगे और पूर्ण आत्मत्यागका जीवन व्यतीत करेंगे।” यही उनका संकल्प था। मैं राणा

  1. इस विवरणके सम्बन्ध में देखिए “टिप्पणियाँ”, ९-२-१९२२ का उप-शीर्षक "प्रकाशनको दृष्टिसे अवांछनीय”।
  2. टी० एल० वास्वाणी ( १८७९-१९६६); सिन्धके एक सन्त पुरुष; पूनाकी ‘मीरा’ नामक शैक्षणिक संस्थाओं के संस्थापक और लेखक।