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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

मैं कहता हूँ “लगभग तैयार”, क्योंकि कर न देनेका हेतु तो यह है कि नौकर-शाहीके हाथोंसे निकलकर सत्ता हमारे हाथोंमें आ जाये। अतएव केवल इतना ही काफी नहीं है कि किसान लोग अहिंसापर आरूढ़ रहें। अहिंसाका पालन करना बेशक इस संघर्ष में ९० प्रतिशत सफलताके समान है, परन्तु यही सब कुछ नहीं है। हो सकता है, किसान लोग अहिंसापर तो आरुढ़ रहें पर शायद अछूत लोगोंको अपने भाईके बराबर न मानें, हो सकता है, वे हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों और पारसियोंको, जैसा कि मौका हो, अपना भाई न समझें, हो सकता है, वे चरखे और खादीकी आर्थिक और नैतिक महिमा न सीख पाये हों। यदि उन्होंने यह सब न किया हो तो वे स्वराज्य प्राप्त नहीं कर सकते। यदि इन बातोंको वे आज नहीं कर रहे हैं तो स्वराज्य प्राप्त होनेपर नहीं करेंगे। उन्हें यह बताना चाहिए कि इन सब राष्ट्रीय गुणोंको आचरणमें उतारना ही स्वराज्य है।

इस तरह यह सविनय कर न देनेका सौभाग्य उन्हीं लोगोंको प्राप्त हो सकता है जो पूर्वोक्त सब बातोंकी खूब कड़ी शिक्षा पा चुके हैं। और जिस प्रकार उस आदमीके लिए, जो राज्यके कानूनोंको तोड़नेका गुनाह करनेका आदी है, सविनय अवज्ञा करना कठिन बात है, उसी प्रकार सविनय कर न देना भी उन लोगोंके लिए मुश्किल चीज है जिन्हें जरा-जरासी बातपर बार-बार कर रोक रखनेकी आदत है। इस असहयोगकी लड़ाईमें सविनय कर न देना तो दरअसल आखिरी अवस्था है। सो जबतक हम सविनय अवज्ञाके दूसरे तरीकोंको आजमाकर देख न लें तबतक हमें इसका सहारा नहीं लेना चाहिए। इन आरम्भिक अवस्थाओं में बड़े-बड़े तथा बहुत सारे क्षेत्रोंमें इसका प्रयोग करना बहुत ही बड़ी नादानीकी बात होगी।

जमींदारों को भी लगान न अदा करनेकी बातें मैं सुन रहा हूँ। हमें यह न भूलना चाहिए कि हम जमींदारोंके साथ, फिर वे चाहे हिन्दुस्तानी हों या विदेशी, असहयोग नहीं कर रहे हैं। हम तो उस एक बड़े जमींदार―― नौकरशाही――से लड़ रहे हैं, जिसने न केवल हमें बल्कि स्वयं इन जमींदारोंको भी अपना गुलाम बना रखा है। हमें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे ये छोटे जमींदार हमारे पक्षमें हो जायें और यह बड़ा जमींदार अकेला एक तरफ रह जाये। लेकिन यदि ये लोग हमारे पक्षमें न आयें तो भी हमें धीरजसे काम लेना चाहिए। हमें उनका सामाजिक बहिष्कार भी नहीं करना चाहिए। मतलब कि हमें उनको धोबी, नाई आदिकी सामाजिक सेवाओंसे वंचित नहीं करना चाहिए। अतः जो क्षेत्र चिरस्थायी प्रबन्धके अन्तर्गत आते हों उन क्षेत्रोंमें कर न देनेका आन्दोलन न शुरू किया जाना चाहिए। हाँ, ऐसे क्षेत्रोंमें भी सीधे सरकारी खजानेमें जानेवाले महसूलोंकी हदतक यह आन्दोलन चलाया जा सकता है। लेकिन जमींदारोंका उल्लेख तो यहाँ उन कठिनाइयोंको दिखानेके लिए ही किया गया है जो कर न देनेके अभियानमें सामने आ सकती हैं। इसलिए सब बातोंपर विचार करते हुए मेरी तो सोची-समझी राय यही है कि कांग्रेसकी उद्देश्य-पूर्ति के लिए कर न देनेके अभियानका दायित्व फिलहाल मुझपर ही छोड़ दिया जाये। इस बीच कार्यकर्ता लोग अपने-अपने जिलोंमें रचनात्मक तैयारी करें। सार्वजनिक सविनय अवज्ञा