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करबन्दी

 

मतलब क्या यही नहीं होगा कि वे इस आध्यात्मिक आन्दोलनमें लोगोंके सामने एक भौतिक प्रलोभन रख रहे हैं――चाहे वे बिलकुल अनजान में ही ऐसा क्यों न कर रहे हों? हालकी घटनाओंने यह दिखला दिया है कि सर्वसाधारणके बीच हिंसावृत्ति और हिंसा में विश्वास अब भी शेष है। इस दशा में कर न देने के रूपमें सविनय अवज्ञा शुरू करनेका मतलब अँधेरी खाईमें कूदना होगा, जिसके फल बड़े भयंकर और विनाशकारी हो सकते हैं। अतः में इस बातके लिए बहुत उत्सुक हूँ कि श्री गांधी इस रूपमें सविनय अवज्ञाको अभी शुरू न करें।

इस आक्षेपका औचित्य इस बातमें है कि कर न देनेके अभियानकी बदौलत इस संघर्ष में ऐसे लोग सम्मिलित हो जायेंगे जो अभी अहिंसाके सिद्धान्तमें पूरी तरह संसिक्त नहीं हैं। यह बात बहुत सच है, और चूँकि यह सच है, इसलिए बेशक, कर न देने के अभियानका मतलब लोगोंके सामने भौतिक प्रलोभन रखना ही है। इससे हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि इस खयाल और आशासे कि इसमें लोग तुरन्त शामिल हो जायेंगे, हमें कर न देनेका अभियान शुरू नहीं करना चाहिए। लोगोंकी तत्परताका प्रलोभन बहुत घातक होता है। इस प्रकारसे कर न देना, न तो विनयपूर्ण ही होगा और न अहिंसात्मक ही; इसके विपरीत वह एक अपराधपूर्ण काम होगा और उससे हिंसा के उद्रेककी भी पूर्ण सम्भावना रहेगी। हमें पण्डित जवाहरलाल नेहरूके अनुभवको याद रखना चाहिए। किसान लोग अहिंसाका व्रत धारण कर चुके थे। पर फिर भी एक मौकेपर उन्होंने पण्डित नेहरू से कह दिया कि यदि आप हुक्म दें तो हम हिंसाके लिए भी बखूबी तैयार हैं। किसान लोग जबतक यह न समझ लें कि कर देने से सविनय इनकार करनेका कारण क्या है और उसकी खूबी क्या है, और शान्त चित्त रहकर निर्विकार भावसे अपने खेतोंसे अपनी बेदखली (जो कि चन्द रोजके ही लिए होगी) तथा जानवरोंका और दूसरी चीजोंका छीनकर नीलाम किया जाना आदि दृश्योंको देखने के लिए तैयार न हों तबतक उन्हें कर देना बन्द करनेकी सलाह न दी जानी चाहिए। पवित्र फिलिस्तीन के लोगोंपर जो कुछ बीती उसका हाल किसानोंको अवश्य बताना चाहिए। वहाँ जिन अरबोंपर जुर्माना किया गया था, उन्हें चारों ओरसे सिपाहियोंने घेर लिया था। हवाई जहाज सरपर मँडरा रहे थे। उन हट्टे-कट्टे लोगोंके पशु छीन लिये गये थे, और एक जगह घेरकर बन्द कर दिये गये थे, उन्हें न चारा दिया गया था न पानी। बेचारे अरब लोग किंकर्त्तव्यविमूढ़ और असहाय हो गये। फिर जब उन्होंने जुर्माना और दण्डके रूपमें ठोंकी गई अतिरिक्त रकम लाकर दी, तब मानो उनका उपहास करने के लिए उनके मृत और मृतप्राय पशु उन्हें लौटाये गये। यहाँ भारतमें, इससे भी अधिक भयंकर बातें हो सकती हैं; और होंगी। क्या हिन्दुस्तानके किसान अहिंसापर आरूढ़ रहकर अपने पशुओंको अपनी आँखोंके सामने ले जाते हुए और बिना दाना-पानीके उन्हें मरते हुए देखनेको तैयार हैं? मैं जानता हूँ कि आन्ध्र-देशमें ऐसी घटनाएँ पहले ही हो चुकी हैं। यदि आम किसान-समाज ऐसे कठिन समयमें भी जान-बूझकर और सोच-समझकर अहिंसापर आरूढ़ रह सकता हो तो समझना चाहिए कि वे सही मानीमें कर न देनेके अभियानके लिए लगभग तैयार हैं।