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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शक्ति पहचान ली है। अब हमें जल्दीमें ऐसा कोई काम नहीं कर बैठना चाहिए जिससे हमारी प्रगति ही रुक जाये।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २६-१-१९२२
 

१०७. करबन्दी

कर न देनेका विचार भारतके वायुमण्डलमें छा रहा है। भारत के दूसरे भागों की अपेक्षा आन्ध्र-देशने हमें उसके घोषसे अधिक परिचित कराया है। कांग्रेसने जब प्रत्येक प्रान्तको प्रान्तिक स्वतन्त्रता प्रदान की है, मैंने यह चेतावनी देनेकी धृष्टता की है कि जबतक मैं स्वयं अपनी देख-रेख में किसी क्षेत्र में कर न देनेका प्रयोग करके न देखूँ, तबतक दूसरा कोई भी प्रान्त यह आन्दोलन न छेड़े।[१] मैं उस चेतावनीपर अब भी कायम हूँ। मैं इस बातकी ओर भी लोगोंका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि ३१ जनवरीतक अथवा मालवीय परिषद् समितिकी सुलहकी बातचीतका फल यदि ३१ जनवरीसे पहले ही मालूम हो जाये तो उसके मालूम होनेतक और यह जान लेनेतक कि अब प्रस्तावित गोलमेज सम्मेलन नहीं होगा, हमें आक्रामक सविनय अवज्ञा शुरू नहीं करनी है। अतएव फिलहाल कर देना बन्द रखनेका मतलब यही समझा जा सकता है कि वह समिति सुलहकी जो बातचीत चला रही है, उसका परिणाम प्रकट होनेतक अस्थायी रूपसे ही कर देना बन्द किया गया है। लेकिन ३१ जनवरी अब नजदीक आ रही है। अतएव यह आवश्यक है कि कर न देनेके प्रश्नपर सांगोपांग विचार कर लिया जाये।

इस विषयपर एक मित्र, जो कि राष्ट्रीय आन्दोलनके साथ गहरी सहानुभूति रखते हैं और जिन्होंने उसपर अच्छी तरह चिन्तन-मनन किया है, इस प्रकार अपनी आशंका प्रकट करते हैं:

मैंने अकसर इस विषयपर विचार किया कि जब अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन सविनय अवज्ञाके सिलसिले में करबन्दीका रूप लेगा तो क्या धर्मकी सीमाका उल्लंघन होगा और यदि होगा तो किस मात्रामें होगा। मैं अहिंसात्मक असहयोगको तत्त्वतः आध्यात्मिक आन्दोलनकी दृष्टिसे देखता हूँ। मुझे यह भी मालूम है कि श्री गांधी भी इसे ऐसा ही समझते हैं। कर न देनेका कार्यक्रम क्या धार्मिक मर्यादाको तोड़ नहीं देगा? क्या इससे हिंसाकाण्ड नहीं मच जायेगा? क्या इस आन्दोलनमें ऐसे-ऐसे लोग भी शरीक नहीं हो जायेंगे जो अहिंसाके सिद्धान्त में संक्ति नहीं हैं? श्री गांधी अपने आध्यात्मिक आन्दोलनके जरिये सरकारपर विजय प्राप्त करना चाहते हैं। लेकिन कर न देनेके अभियानका
  1. देखिए “पत्र: कोण्डा वेंकटप्पैथाको”, १७-१-१९२२।