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उत्तर-दक्षिण

ही अपनी भूख मिटाने की कोशिश करता है तो बन्दूक लेकर उसके प्राण ले लेने की धमकी देता है।

भारतका वर्तमान वातावरण मनुष्यको बोदा बना देनेवाला है। इसमें असहयोगियोंका कर्त्तव्य उनके सामने स्पष्ट है। उन्हें आदर्श धैर्य रखना चाहिए। किसीके भड़काने से उन्हें जल्दीमें कोई काम न कर बैठना चाहिए। जिस जगह वे सामना करने के लिए तैयार न हों, वहाँ उन्हें संग्राम न छेड़ना चाहिए। हमें अहिंसक बनाना अथवा अहिंसक बने रहने में मदद देना सरकारका काम नहीं है। हिंसा-काण्डको रोकने के उसके उपाय भी इतने हिंसात्मक है कि उनपर क्रोध आये बिना नहीं रह सकता। पर, हाँ, एक बातमें हमें अवश्य उसका कृतज्ञ होना चाहिए। सरकार जो कुछ प्रतिवाद करती है अथवा टीका-टिप्पणी करती है उसका सार यही है कि हम, अर्थात् असहयोगी लोग, अपने ध्येयके अनुसार काम करना नहीं जानते तथा यदि हम चाहें भी तो सफलताके साथ हिंसा-काण्डकी अर्थात् शस्त्रास्त्रके प्रयोगकी योग्यता नहीं रखते। हमें ये दोनों दलीलें मान लेनी चाहिए। हमें अपने ध्येय अर्थात् अहिंसा पर अटल रहना चाहिए। तब सरकारको भी अपने शस्त्रास्त्र एक ओर रख देने होंगे। क्योंकि शान्ति तो दोनोंको अभीष्ट है। और तब जो लोग अहिंसाके कायल नहीं हैं वे कमसे कम यह समझ लेंगे कि “भारतवर्ष न तो पशुबलका मुकाबला पशुबलके द्वारा करने को तैयार है और न वह ऐसा चाहता ही है।” क्या ही अच्छा हो, यदि वे लोग जो यह मानते हैं कि हथियार उठाये बिना भारतको आजादी मिल ही नहीं सकती, जरा मेरे कथनकी सत्यताको अनुभव करें। वे यह कदापि न सोचें कि वे शस्त्र ग्रहण करनेके लिए तैयार और उत्सुक हैं इसलिए भारतवर्ष भी उसी तरह तैयार या उत्सुक है। मैं दावेके साथ कहता हूँ कि भारत इसके लिए तैयार नहीं है――इसलिए नहीं कि वह दीन और असहाय है; बल्कि इसलिए कि वह चाहता ही नहीं। यही कारण है कि अहिंसाको अनपेक्षित सफलता मिल रही है, जबकि यदि उसकी जगह हिंसाका प्रयोग किया जा रहा होता तो हिंसाके पक्षमें जिस मानव स्वभावकी दुहाई दी जाती है उसके बावजूद वह असफल हो जाती। भारतके जन-समाजको प्राचीन कालसे पशुबलके खिलाफ शिक्षा मिलती चली आ रही है। भारतवर्षंके मनुष्यों में मानवोचित प्रवृत्तिकी इतनी अधिक प्रगति हो चुकी है कि यहाँके अधिकांश जन-समूह के लिए पशुबलकी अपेक्षा अहिंसा धर्म ही अधिक स्वाभाविक हो गया है। हाँ, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि बम्बई और मद्रासके अनुभवोंसे मेरा ही कथन सिद्ध होता है। यदि भारतके लोग स्वभावसे हिंसक होते तो बम्बई और मद्रासमें इतनी सामग्री मौजूद थी जिससे ऐसी आग धधक उठती कि किसीके बुझाये न बुझती। जिस तरह जरा-सी गन्दगी भी स्वच्छ स्थानको गन्दा करनेके लिए काफी होती है उसी तरह थोड़ी-सी हिंसा से ही शान्तिमय वातावरण विक्षुब्ध हो जाता है। पर दोनों विजातीय वस्तुएँ हैं, अतएव शीघ्र ही दूर कर दी जाती हैं। भारतको पशुबलकी शिक्षा देकर फिर शस्त्रास्त्र द्वारा बलपूर्वक स्वराज्य लेना तो युगोंका कार्यक्रम हो जायेगा। मैं सचमुच मानता हूँ कि आज भारतमें जो आश्चर्यजनक कार्य-शक्ति और राष्ट्रीय चैतन्य प्रकट हो रहे हैं वह केवल अहिंसा-धर्म के अवतरणका ही फल है। लोगोंने अपनी