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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

नौकर अपने दुष्कृत्योंपर पश्चात्ताप नहीं करते उनकी पेन्शन जारी रखनेके पक्षमें मुझे एक भी नैतिक सिद्धान्त नहीं दिखाई देता। हाँ, ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ के सिद्धान्तकी बात दूसरी है। सो दोनों दलोंके दृष्टिकोणमें उत्तर और दक्षिण ध्रुवका भेद है। जो बात एकको न्याय्य और नीतियुक्त दिखाई देती है वही दूसरेको अन्यायपूर्ण और अनीतियुक्त मालूम होती है। मैं यह दावेके साथ कहता हूँ कि पेन्शन बन्द कर देनेकी कांग्रेसकी माँग बिलकुल न्याय्य है; इतना ही नहीं उसमें बदला लेनेकी भी कोई बात नहीं है। वह उनपर मुकदमा चलानेके अपने हकका उपयोग करना नहीं चाहती, वह उन्हें सजा भी दिलाना नहीं चाहती। वह इतना ही कहती है कि उन्हें पेन्शन देते रहना अन्याय है और उसमें अब आगे शामिल रहना नहीं चाहती। सच बात तो यह है कि सरकार अब भी उन दोनों अपराधियोंको साम्राज्यका ऐसा सेवक मानती है जिन्होंने उसकी विशिष्ट सेवा की है। यह प्रवृत्ति बदलनी होगी; तभी पंजाब-काण्डकी पुनरावृत्ति असम्भव हो सकती है, उसके पहले नहीं।

और जो बात पंजाब के विषयमें है वही स्वराज्यके विषयमें भी है। जो चीज भारतकी है वह उसे लौटा देना सरकारको असम्भव मालूम हो रहा है। उसका तो सिद्धान्त-वचन है कि सुधार बहुत छोटी किस्तोंमें दिये जायें। इसके मूलमें जो भाव है वह यह कि जबतक अत्यन्त आवश्यक न हो जाये तबतक कुछ भी न दिया जाये। यह मतभेद इतना अधिक है कि खिलाफत और पंजाबके दुःखोंके दूर होनेके पहले स्वराज्यका खयालतक करते हुए मेरा कलेजा काँपता है। ये दोनों प्रश्न यों तो सीधे-सादे जान पड़ते हैं परन्तु वे स्वराज्यसे कम मुश्किल नहीं हैं; क्योंकि इन शिकायतों के निराकरणका मतलब सरकार के लिए भारतीय लोकमतके आगे सिर झुकाना है।

मेरी यह मीमांसा शुद्ध तर्कपर आधारित है और उससे यह प्रगट है कि इन माँगों में कोई बात ऐसी नहीं जो असम्भव हो। असम्भवता और कहीं नहीं, बस, सत्ताधारियों द्वारा अपनी सत्ता――वह सत्ता जो उनके हाथोंमें हरगिज न होनी चाहिए थी――न देनेकी इच्छामें है।

यदि सरकार सिर्फ अपने कर्त्तव्योंका पालन करती रहे तो दमनकी आवश्यकता ही क्यों रहे? अच्छा, मान लीजिए कि यदि कानूनकी सामुदायिक सविनय अवज्ञा जल्दी में शुरू की गई तो हिंसा हुए बिना न रहेगी। तो क्या हिंसाके डरसे लोगोंको अपने हकोंसे दूर रखना चाहिए? जब हमारे सहयोगी भाई सत्याग्रहियोंके मत्थे यह दोष मढ़ते हैं कि वे जल्दी मचाकर बड़ी कठिन और नाजुक स्थिति पैदा कर रहे हैं, तब यह बात उनके ध्यानमें नहीं आती कि ऐसा कहकर वे सत्याग्रहियों के प्रति अन्यायका समर्थन कर रहे हैं; और इतना ही नहीं बल्कि उसमें अपमान भी जोड़ रहे हैं। सत्याग्रही नहीं, सरकार ही जान-बूझकर कठिन स्थितिको न्यौता दे रही है। जिन लोगोंका जनतापर कुछ भी प्रभाव है, जो जनताको अहिंसात्मक बनाये रख सकते हैं ऐसे हरएक पुरुषको जेल भेजकर सरकार तो खुद ही हिंसा-काण्डके लिए जल्दी मचा रही है। सहयोगी भाई यह नहीं देखते कि सरकारका यह कार्य उस आदमीकी तरह है जो भूखेको भोजन देने से इनकार करता है और जब वह खुद