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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

आपका और सम्बन्धित अधिकारियोंका भी आभारी हूँ। मुझे विश्वास है कि जो लोग जेलसे बाहर हैं उनके लिए आप शीघ्र ही शान्ति और सुरक्षाको व्यवस्था कर सकेंगे। वे जब यहाँ आयेंगे तो, आशा है, हम उन्हें विनम्रतापूर्वक, परन्तु बिना किसी हीन भावके, ग्रहण करेंगे। हमें क्षणिक शान्तिके लिए नहीं, बल्कि ऐसी स्थायी शान्तिके लिए प्रयत्न करना चाहिए जो समानता और सभी.लोगोंके सामान्य लाभके सिद्धान्तपर आधारित हो, क्योंकि मेरे विचारमें उसी प्रकारकी शान्ति टिकाऊ हो सकती है। किसी और शर्तपर प्राप्त हुई शान्ति निश्चय ही एक कसक छोड़ जायेगी, जो शासित या शासक किसीके लिए भी लाभदायक नहीं होगी।
यदि हम इस खेलको पुरुषोचित और सम्मानित ढंगसे तथा बिना द्वेष या कड़वाहटके खेलते हैं, तो मेरी तुच्छ रायमें इस बातका कोई विशेष महत्त्व नहीं कि हमारी जीत होती है या हार; क्योंकि निःस्वार्थ भावसे भोगे गए कष्ट सदैवके लिए बेकार नहीं होंगे, बेकार हो नहीं सकते।

इस पत्रपर जेल सुपरिटेंडेंटके प्रति-हस्ताक्षर हैं। मोतीलालजीने लखनऊके अपने ‘होटल’ से मुझे यह चेतावनी दी है कि मैं किसी अधकचरी और पैबन्द लगी शान्तिको स्वीकार न करूँ। वे अनिश्चित कालतक जेलमें रहनेको तैयार हैं। हमारे बीच आज बहुत-से स्वराज्य आश्रम उभर रहे हैं। पर उनमें से कोई भी इतना सच्चा नहीं है जितनी कि जेलें। उनका निर्माण धनसे नहीं, बल्कि मजबूत दिलोंसे हुआ है।

बर्मामें

राष्ट्रीयताकी लहर फैल रही है। बर्मापर मैंने इस बार दो लेख दिये हैं।

स्वामी श्रद्धानन्दजी[१] और श्री अब्बास तैयबजीने मुझे हाथियों और आश्चर्योंके उस देशमें हो रही राष्ट्रीय जागृतिका शानदार ब्योरा दिया है। अंग्रेज शासकों द्वारा बर्माकी लूट उनके इतिहासका एक दुःखद अध्याय है। मेरे लिए उससे भी अधिक दुःखकी बात यह है कि हिन्दुस्तानी भी उस लूटमें भाग लेनेसे झिझके नहीं हैं। मैं कभी इस बातपर गर्व अनुभव नहीं कर सका हूँ कि बर्मा ब्रिटिश भारतका अंग बना दिया गया है। वह भारतका अंग कभी नहीं था और न कभी होना चाहिए। बर्मी लोगोंकी एक अपनी सभ्यता है। बर्माका बौद्ध धर्म भारतके बौद्ध धर्मसे बिलकुल भिन्न है, जैसे कि यूरोपका ईसाई धर्म ईसाके ईसाई धर्मसे सर्वथा भिन्न है। मैं इनमें से किसीकी भी निन्दामें कुछ कहना नहीं चाहता। ईसाका सन्देश यूरोपीय मानस जितना हजम कर सकता है उससे कहीं ज्यादा भारी था। बुद्धका सन्देश बर्मी मानसके लिए ज्यादा भारी था। दोनों राष्ट्रोंको इन सन्देशोंसे अपनी-अपनी ग्रहण-शक्तिके अनुसार लाभ हुआ है। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि यूरोपको ईसाके सन्देशके गूढार्थ और रहस्योंको अभी

  1. महात्मा मुंशीराम (१८५६-१९२६); बादमें श्रद्धानन्दके नामसे सुविख्यात, आर्थसमाजी राष्ट्रीय नेता; दिल्ली और पंजाबमें सार्वजनिक कार्यों में प्रमुख भाग लिया।