पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 22.pdf/२८२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सचाईपर हैं, मेरा यह टिप्पणी लिखना जितना निश्चित है उतने ही निश्चयके साथ यदि हम सच्चे हैं, तो हमारे कष्ट सहनसे उनकी आँखें खुल जायेंगी―ठीक उसी तरह जिस तरह कि इस “अंग्रेज महिला” की आँखें खुल गई हैं। यह एक ही उदाहरण ऐसा नहीं है। सफरमें अक्सर बीसियों अंग्रेज भाइयोंसे मेरी मुलाकात होती है। मैं उन्हें नहीं पहचानता; पर वे बड़े शौकसे मुझसे हाथ मिलाते हैं, मेरी सफलता चाहते है और चले जाते हैं। हाँ, यह सच है कि जहां बीसियों अंग्रेज मुझे आशीर्वाद देते हैं वहाँ सैकड़ों ऐसे भी हैं जो मुझे शाप देते हैं। इन शापोंको भी हमारे यहाँ उसीके चरणोंमें अर्पित कर देनेकी आज्ञा दी गई है। वे हमें शाप देते हैं इसका कारण उनका अज्ञान ही तो है। कितने ही अंग्रेज भाई तथा कुछ हिन्दुस्तानी भी मुझे तथा मेरी हलचलोंको दुष्ट और कुटिल समझते हैं। ऐसे लोगोंके साथ भी असहयोगियोंको सहिष्णुता बरतनी चाहिए। यदि उन्होंने क्रोध और वैर-भावको अपनाया तो उनकी हार निश्चित है; पर यदि वे उन्हें सहन करते रहे तो उनकी जय निश्चित है; उसमें विलम्ब नहीं। “मुझे निश्चय हो चुका है कि इस सारे विलम्बका कारण हमारी अपनी त्रुटियाँ हैं।”

हम हमेशा ही शान्तिमय नहीं बने रहे हैं। हमने अपनी प्रतिज्ञाके खिलाफ, दुर्भावको अपने हृदयमें स्थान दिया है। हमारे प्रतिपक्षी, अंग्रेज शासकवर्ग, उनके साथ सहयोग करनेवाले, ताल्लुकेदार तथा राजा लोग हमपर अविश्वास रखते आये हैं और हमसे भय खाते आये हैं। अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार हम उनको हर तरहसे सुरक्षित रखने के लिए बाध्य हैं। हाँ, दीन-दुर्बल लोगोंकी आर्थिक लूटमें तो हमें उनको किसी तरह सहायता न देनी चाहिए; परन्तु हमें उन्हें किसी तरह नुकसान भी न पहुँचाना चाहिए। यद्यपि उनकी संख्या बहुत ही कम है तथापि उन्हें ऐसा लगना चाहिए कि सरकारकी संगीनें उन्हें जितनी सुरक्षा देती हैं उससे कहीं अधिक सुरक्षा उन्हें हमारे बीच मिलेगी। यदि हमारी संख्या कम होती तो हमारी स्थिति अधिक आसान रही होती―बहुत पहले ही हम अपने धर्मकी सचाई सिद्ध कर चुके होते। परन्तु हमारी संख्या तो बहुत ज्यादा है और इसीसे हमें परेशानी होती है। वर्तमान राज्यसे तो हम सभी असन्तुष्ट हैं, परन्तु अहिंसामें हमारी श्रद्धा एक-सी ज्वलन्त नहीं है। हमें तबतक दम नहीं लेना चाहिए जबतक हम मद्रासकी जैसी शर्मनाक दुर्घटनाओंको असम्भव न बना दें। हम बात तो हमेशा अहिंसाकी करते हैं तो फिर हमें अदालतोंकी कार्रवाई में बाधा न डालनी चाहिए। या तो हम जेलोंका आह्वान करें या उससे दूर ही रहें। यदि हम ऐसा चाहते हैं तो सरकार हमें जितनी जल्दी जेल ले जाना चाहे उतनी जल्दी उसे ले जाने देना चाहिए। जिस हदतक हम अहिंसाके फलितार्थको.नहीं समझते उसी हदतक इस संघर्षकी अवधि बढ़ती जाती है।

सरकारी मेहमान

यदि किसीके मनमें इस संघर्षकी सच्ची आध्यात्मिकताके बारेमें कोई सन्देह है तो मुझे आशा है कि बाबू प्रसन्नकुमार सेनके निम्नलिखित पत्रसे[१] उसके दूर होनेमें

  1. पत्रके केवल कुछ अंश ही यहाँ दिये जा रहे हैं।