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सर्वदलीय सम्मेलन

और न सम्मेलनका कार्य रुका। वे ज्यों ही गये त्यों ही पण्डितजीने उनकी जगह सर विश्वेश्वरय्याको स्पीकर बनानेका प्रस्ताव किया और वे स्पीकरकी कुर्सीपर बैठे। एक वर्ष पहले सर शंकरन् नायर-जैसे व्यक्तिके इस तरह स्पीकरकी कुर्सी छोड़कर चले जानेसे भारी खलबली मची होती और उनकी बहुत मनौती की गई होती। किन्तु अब तो लोग स्वतन्त्र हो गये हैं; वे अपने अधिकार और अपनी मर्यादा समझते हैं, और इसलिए वे ऐसे अवसरोंपर धीरजसे स्थितिको सँभाल सकते हैं।

कहा जा सकता है कि जो प्रस्ताव स्वीकृत किये गये हैं, वे उचित हैं। उनसे अधिक विस्तृत और तीखे प्रस्ताव पास किये जा सकते थे। किन्तु जो प्रस्ताव स्वीकृत हुए हैं यदि सरकार उनपर अमल करे तो अन्तमें समझौतेकी नींव अवश्य ही पड़ सकती है।

किन्तु सरकार सम्मेलनकी सलाहपर अमल करेगी इसका भरोसा बहुत कम है। सरकारको अली-बन्धुओंको छोड़ना कठिन मालूम होगा। स्वयंसेवकोंकी भरती होने दे, सभाएँ होने दे, जो सैकड़ों लोग गिरफ्तार किये गये हैं उनको छोड़ दे और जिन अखबारोंसे जमानतें ली हैं उनकी जमानतें भी लौटा दे――इतना करनेके बाद फिर उसे खिलाफतके सम्बन्धमें और पंजाबके अत्याचारोंके सम्बन्धमें हमारी माँगें स्वीकार करनी ही पड़ेंगी। यदि वह स्वीकार न करेगी तो स्वतन्त्र लोकमत इतना प्रबल होगा कि उसके सम्मुख कोई भी राज्य नहीं टिक सकेगा।

ऊपर बताई हुई शर्तोंके अनुसार सरकार सम्मेलन बुलाये तो उसका परिणाम अवश्य ही शुभ हो सकता है। किन्तु सरकार ऐसा सम्मेलन बुलायेगी ही नहीं इस बातको हम समझ सकते हैं। तो फिर मालवीयजीके बुलाये सम्मेलनमें जानेसे क्या फायदा हुआ? फायदा इतना ही हुआ कि हमारी मांगके सम्बन्धमें कुछ अधिक प्रचार हो गया और नरमदलीय लोगोंको यह कहनेका अवसर न रहा कि हम किसीसे मिलना या किसीकी बात सुनना नहीं चाहते। इस सम्मेलनमें जाकर हमने अपनी नम्रता बताई। जो लोग दृढ़ और शक्तिशाली हैं वे अपने शत्रुओं और आलोचकोंसे सैकड़ों बार मिलनेपर भी जबतक अपने पक्षको ठीक मानते हैं तबतक उसीपर मजबूतीसे कायम रहते हैं।

मैं जिस समय यह लिख रहा हूँ तभी दिल्लीकी बड़ी धारा-सभामें इस सम्बन्धमें की गई चर्चा मेरी नजरमें आई। वहाँ जो चर्चा हुई है उससे लगता है मानो धारा-सभाके अधिकांश सदस्योंको देशकी हालतकी कोई खबर ही नहीं है। हमसे ऐसी धारा सभामें ही जानेका आग्रह किया गया था। यह सभा लोकमतके अधीन रहकर नहीं चलती, बल्कि सरकारके मतके अनुसार चलती है, यह बात हम देख सकते हैं। किसीको यह न मानना चाहिए कि धारा सभामें आज जो सदस्य हैं उनकी जगह असहयोगी सदस्य होते तो इससे अधिक अच्छा परिणाम निकलता। उनकी भी निश्चय ही यही हालत होती। थोड़ी देरके लिए मान लें कि इस धारा-सभाके अन्य सब सदस्य एकमत हो जाते तो भी सरकार अपने निश्चयके अनुसार ही कार्य करती। जबतक सत्ताका मद चला नहीं जाता तबतक धारा-सभामें बैठा हुआ एक भी सदस्य कुछ