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स्वराज्य कहाँ है?

होती है। शान्तिका अर्थ है क्षमा और क्षमा वीरका भूषण है। जिस मनुष्यको भूख न हो यदि वह भोजन न करे तो उसे उपवासका पुण्य नहीं मिल सकता? जिसमें मारने की शक्ति नहीं है वह यदि किसीको नहीं मारता तो कोई पुण्य नहीं करता। अनिच्छासे जो काम किया जाता है उससे पुण्य मिल ही नहीं सकता। बारडोली और आनन्द के जो योद्धा संग्रामकी तैयारी कर रहे हैं वे जब एक भी पारसी, एक भी अंग्रेज और एक भी सहयोगी भाईको न सतायें और उनके प्रति वैर-भाव न रखें, तब वे शान्तिपूर्ण युद्धकी सेनामें शामिल होने योग्य माने जा सकेंगे। जो लोग शान्तिके नामपर अशान्तिके काम करते हैं वे देशद्रोह करते हैं, इतना ही नहीं बल्कि वे जगत्द्रोह भी करते हैं, क्योंकि आज जगत् हमारे शान्ति-शस्त्रके प्रयोगको तृषातुरकी तरह टकटकी लगाकर देख रहा है। जबतक भारत शान्तिका उपयोग बलवान्‌के शस्त्रकी तरह करना नहीं सीखता तबतक समझौतेको अस्पृश्य समझकर उससे सौ कोस दूर रहना चाहिए।

और हिन्दू पाठकोंसे मैं क्या कहूँ? हिन्दू लोग जबतक ढेढों और भंगियोंको अपने सगे भाईकी तरह न मानेंगे तबतक मैं यह कहने की धृष्टता करता हूँ कि वे हिन्दू ही नहीं हैं; और यह बात मैं अपनेको एक कट्टर हिन्दू समझकर कहता हूँ। जिस दिन हिन्दू भंगियोंको प्रेमसे गले लगायेंगे उस दिन आकाशसे सुमन-वृष्टि होगी और उसी दिन सच्ची गोरक्षा होगी। मनुष्यका तिरस्कार और दया ये दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकतीं। हम ढेढों, भंगियोंके दोष प्रेमसे दूर कर सकते हैं। आनन्द-शंकर ध्रुवके शब्द मेरे कानोंमें हमेशा गूंजते रहते हैं। हमारे हृदयमें स्थित ढेढ-भंगी भावना ही हमारी शत्रु है और वही अस्पृश्य है। जिन देहधारियोंको अस्पृश्य माननेका पाप हम कर रहे हैं वे तो हमारे प्रिय जन हैं। उनके स्पर्शसे, उनकी सेवासे तो हमें पुण्य प्राप्त होगा। यदि वैष्णव किसी ढेढ अथवा भंगीके शरीरसे सांपके काटेका जहर चूसकर, बिना नहाये मन्दिरमें चला जाये तो उसके प्रवेशसे मन्दिर भी पवित्र हो जायेगा। यह तो मानो कृष्णके घर सुदामा या विदुर ही पहुँच गये। जबतक छुआछूत-रूपी अश्वत्त्यको हम जड़मूलसे न उखाड़ डालेंगे या आनन्दशंकर ध्रुवकी तरह अस्पृश्यता- का सच्चा अर्थ न समझेंगे तबतक हमें समझौतेका खयाल भी न करना चाहिए।

ऐसे महान् कार्य और ऐसी आत्म-शुद्धि तो हम कष्ट सहनके द्वारा ही कर सकेंगे। जो अपने मोक्षके लिए मरना जानता है, वही मोक्ष प्राप्त करता है। बिना इच्छाके मरनेवाले मनुष्योंको अवगति प्राप्त होती है। इस प्रकार इच्छापूर्वक मरनेवाला मनुष्य ही मोक्षके योग्य होता है। ऐसे ही हम भी जब पूर्वोक्त साधनोंपर दृढ़ रहते हुए मरने तक का भय छोड़ देंगे तभी स्वतन्त्रता अथवा स्वराज्य प्राप्त करेंगे। देशबन्धु दास, लालाजी, मोतीलालजी, मौलाना अबुल कलाम और अन्य नेता हमें मरनेका मन्त्र सिखा रहे हैं। ऐसा मालूम होता है कि हम उस मन्त्रको सीख भी गये हैं। इसीसे कोई यह नहीं पूछता कि स्वराज्य कहाँ है? सब यही कहते हैं कि जब हममें स्वेच्छापूर्वक मरनेका बल आ गया तब स्वराज्य प्राप्त ही है। और शेष तो मृगजल ही है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २२-१-१९२२