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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करते कि बालकोंको पहले नीतिकी शिक्षा देनी चाहिए, फिर उनके शरीरको सुगठित बनाना चाहिए और फिर आजीविकाके साधनके रूपमें कोई उद्योग-धन्धा या कला सिखानी चाहिए। इसके बाद उनकी मानसिक शक्तिका विकास करके अलंकारके रूपमें उन्हें अक्षर-ज्ञान देकर विभूषित करना चाहिए। मुझे अब्बास साहबने बताया कि बहुतसे माता-पिता अपने बच्चोंको नडियादके सरकारी हाईस्कूलसे निकाल लेनेके लिए तैयार ही नहीं हैं। गुजरातमें माँ-बाप अपने बच्चोंको उन राष्ट्रीय पाठशालाओं में भेजने और उनमें मिलनेवाली स्वतन्त्रताकी शिक्षाके मूल्यको समझने के लिए अभीतक तैयार नहीं हैं जिनमें विद्यार्थियोंका नैतिक बल बढ़ता है।

वकीलोंका तो पूछना ही क्या? क्या अभी उनसे अदालतोंका मोह छूट पाया है? क्या हम अपने लड़ाई-झगड़ोंका निपटारा अपने घरमें ही करने लगे हैं ? क्या अभी हमने यह जान लिया है कि न्याय महँगा न होना चाहिए। अभी तो बड़े-बड़े धर्म-स्तम्भ माने जानेवाले साम्प्रदायिक नेतागण धार्मिक झगड़ोंका फैसला करानेके लिए प्रीवी कौंसिल में जानेकी बात सोचते हैं। अभी वकीलोंने बड़े-बड़े मेहनतानोंका मोह नहीं छोड़ा है। इसी कारण न्याय अभी सोने और अशर्फियोंसे तोला जाता है। ऐसी अवस्थामें यदि आज समझौता हो जाये तो हमारे लिए कष्ट सहनसे आत्मशोधन करना तो बाकी ही रह जायेगा और समझौता हो जानेके बाद कौन किसकी बात पूछने लगा? अदालतें जैसी आज चलती हैं वैसी ही चलती रहेंगी। फिर रामराज्य क्या हुआ? रामराज्य में निश्चय ही न्यायकी बिक्री नहीं हो सकती।

क्या हिन्दुओं और मुसलमानोंमें पूरी एकता हो गई है? क्या उनके मनमें से एक-दूसरे के प्रति शक दूर हो गया है? क्या देशके भविष्यके विषयमें उनकी कल्पनाएँ भी एक हो गई हैं? दोनोंको परस्पर मित्रता करनेकी आवश्यकता तो मालूम होती है; परन्तु दोनोंके दिल अभी एक नहीं हो पाये हैं। हाँ, वे एक होते जरूर जा रहे हैं। समझौता हो जानेपर यह प्रक्रिया बन्द हो जायेगी। अतः जबतक दोनोंमें एकता स्थापित नहीं हो जाती तबतक स्वराज्यकी बात करना भी व्यर्थ है।

ज्यां लगी आतमा तत्त्व चीन्यो नहि
त्यां लगी साधना सर्व जूठी।

यह कथन स्वराज्य के सम्बन्धमें बिलकुल ठीक है। आत्माकी जगह स्वराज्य शब्द रख दें, बस अर्थ ठीक-ठीक व्यक्त हो जायेगा। अभी हमें स्वराज्यका तत्त्व जानना बाकी है। हिन्दुओं और मुसलमानोंकी मित्रताका अर्थ यदि पारसियों, ईसाइयों और यहूदियोंके प्रति शत्रुता हो तो वह सारे संसारके लिए विनाशकारी बात होगी। इसलिए जबतक हम हिन्दुओं और मुसलमानोंकी मित्रताका अर्थ अच्छी तरह नहीं समझ पाते तबतक समझौते की इच्छा करना ही भूल है।

और इस साध्यका साधन है शान्ति। क्या हमने उसे प्राप्त कर लिया है? क्या हमें प्रतीति हो गई है कि हमारा असहयोग शान्तिमय है और वह हमारे बलका द्योतक है? हम तो शान्तिको दुर्बल मनुष्यका ही शस्त्र मानते हैं और उसकी महिमाको नहीं पहचानते और उससे लजाते हैं। यह तो अशर्फीको अठन्नी समझकर चलाने के बराबर मूर्खता है। शान्ति बलिष्ठ मनुष्यका शस्त्र है और उसीके हाथमें उसकी शोभा