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९६. स्वराज्य कहाँ है?

भगवान् जाने क्या हुआ, जबसे लालाजी, दास, नेहरू और मौलाना अबुल कलाम गिरफ्तार हुए तबसे लोगोंने मुझसे यह बात पूछना ही बन्द कर दिया है कि स्वराज्य कहाँ है? मेरे मनमें जो चिन्ता रहा करती थी वह दूर हो गई है और मुझे यही लगता है कि अब मुझसे यह पूछनेवाला कोई रहा ही नहीं। लोग तो मुझे तार तक भेजने लगे हैं कि "स्वराज्य-प्राप्तिपर आपको बधाई।” पॉल रिचर्डने यहाँ आनेपर ३१ दिसम्बरको अपने भाषण में कहा कि नवयुगका आरम्भ हो गया है। पियर्सनने शान्तिनिकेतनसे पत्र भेजा है कि “मैं पाँच वर्ष बाद आकर देखता हूँ कि भारत तो स्वतन्त्र हो गया है।”

स्वराज्य तो एक मनोदशा है। जब इस मनोदशाकी प्रतिष्ठा हो जायेगी तभी उसकी प्रतिमा बनेगी। जबसे हमारी मनोदशा बदली बस, तभीसे स्वराज्यको मिला हुआ मानिये।

यद्यपि में समझौते के किसी भी अवसरको खोनेवाला आदमी नहीं हूँ, परन्तु मैं भारतकी शक्तिको पहचान चुका हूँ; इसलिए समझौता करते हुए डरता हूँ। यदि हमारा विकास पूरा होनेसे पहले ही समझौता हो जाये तो फिर हमारी दशा कैसी हो? हमारी दशा नौ मास गर्भ में रहनेके पहले ही पैदा होने और थोड़े ही दिनोंमें मर जानेवाले बालककी तरह हो जा सकती है। पुर्तगालमें अल्प समयमें विप्लव हुआ तथा राज्य क्रान्ति हो गई। इससे अब वहाँ विप्लव ही हुआ करते हैं। वहाँ किसी भी सत्ताकी जड़ जम ही नहीं पाती। टर्कीमें जब १९०६ में अचानक राज्य क्रान्ति हुई तब उसे सब लोगोंने बधाइयाँ दीं; परन्तु वह तो चार दिनकी ही चाँदनी थी। वह परिवर्तन स्वप्नवत् विलीन हो गया। उसके बाद टर्कीको बहुत दुःख भोगने पड़े हैं और कौन कह सकता है, उस वीर राष्ट्रको अभी कितने दुःख और भोगने पड़ेंगे।

इन घटनाओंको देखते हुए मैं कई बार असमंजसमें पड़ जाता हूँ और समझ नहीं पाता कि कौन-सी बात ठीक है। इस समय तो निस्सन्देह मेरे मनमें यह डर समाया हुआ है कि यदि समझौता हो जायेगा तो हम न जाने कहाँ जा पहुँचेंगे।

अभी लोगोंकी समझमें यह बात साफ-साफ नहीं आई है कि स्वराज्य प्राप्ति ऐसे यन्त्र के द्वारा हो सकती है जिसे एक अनपढ़ देहाती बढ़ई भी बना सकता है और जिसे एक निर्दोष कोमलांगी कुमारी आसानीसे चला सकती है। तथापि मुझे दिनपर-दिन यह विश्वास होता जाता है कि भारतको उसी यन्त्रकी बदौलत स्वराज्य प्राप्त होगा, उसके बिना हरगिज नहीं।

क्या हमें इस बातका यकीन हो चुका है कि सच्ची सार्वजनिक शिक्षा अक्षर-ज्ञानमें नहीं बल्कि शीलमें, हाथों और पैरोंके उद्योगमें और शारीरिक श्रममें है। गुजराती बच्चोंके माँ-बापोंके मनोंसे अभी अक्षर-ज्ञानका मोह दूर नहीं हुआ है। वे भी अभी अक्षर-ज्ञानके स्थानको नहीं पहचान पाये हैं। वे भी अभी इस बातको स्वीकार नहीं